तद् वक्तारमवतु। अवतु माम्, अवतु वक्तारम्।।४।। सत्यव्रतं सत्यपरं त्रिसत्यं, सत्यस्य योनिं निहितं च सत्ये। सत्यस्य सत्यम् ऋतसत्यनेत्रं, सत्यात्मकं त्वां शरणं प्रपन्नाः।।५।। (183)
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भगवान् ने अपनी प्रतिज्ञा सत्य की, इस कारण संतुष्ट हुए देवता सत्यरूप से भगवान् की स्तुति करते हैं) जिनका व्रत (संकल्प) सत्य है, सत्य ही जिनकी प्राप्ति का श्रेष्ठ साधन है, जो तीनों कालों में, सृष्टि के पूर्व में, प्रलय के बाद एवं स्थिति में सत्यरूप से[2] रहते हैं, जो सत्य अर्थात पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश के कारण हैं,[3] उक्त पाँच महाभूतों में सत्य[4] (अंतर्यामी) रूप से विराजमान हैं और जो इन पाँच महाभूतों के पारमार्थिक रूप हैं क्योंकि इनका नाश होने पर शेष रह जाते हैं, जो सूनृता (मधुर) वाणी और सत्य[5] के प्रवर्तक[6] हैं- हे भगवान्! इस प्रकार सब तरह से सत्यरूप आपकी शरण में हम प्राप्त हुए हैं।।26।।
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