tatv bhedon par ak note likhye
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आज हम नाटक के तत्व पढ़ेंगे और हर एक तत्वों को उदाहरण सहित विस्तार में समझेंगे।
‘ नाटक ‘ अथवा ‘ दृश्य काव्य ‘ साहित्य की अत्यंत प्राचीन विधा है। संस्कृत साहित्य में इसे ‘ रूपक ‘ नाम भी दिया गया है।
नाटक का अर्थ है ‘ नट ‘ |
कार्य अनवीकरण में कुशल व्यक्ति संबंध रखने के कारण ही विधा में नाटक कहलाते हैं।
वस्तुतः नाटक , साहित्य की वह विधा है , जिसकी सफलता का परीक्षण रंगमंच पर होता है। किंतु रंगमंच युग विशेष की जनरुचि और तत्कालीन आर्थिक व्यवस्था पर निर्भर होता है इसलिए समय के साथ नाटक के स्वरुप में भी परिवर्तन होता है।
अब हम नाटक के तत्वों को विस्तार से समझेंगे। और प्रत्येक भाग को उदाहरण सहित समझेंगे।
1. कथावस्तु –
कथावस्तु को ‘नाटक’ ही कहा जाता है अंग्रेजी में इसे ‘प्लॉट’ की संज्ञा दी जाती है जिसका अर्थ आधार या भूमि है। कथा तो सभी प्रबंध का प्रबंधात्मक रचनाओं की रीढ़ होती है और नाटक भी क्योंकि प्रबंधात्मक रचना है इसलिए कथानक इसका अनिवार्य है।
भारतीय आचार्यों ने नाटक में तीन प्रकार की कथाओं का निर्धारण किया है –
१ प्रख्यात
२ उत्पाद्य
३ मिस्र प्रख्यात कथा।
प्रख्यात कथा –
प्रख्यात कथा इतिहास , पुराण से प्राप्त होती है। जब उत्पाद्य कथा कल्पना पराश्रित होती है , मिश्र कथा कहलाती है।
इतिहास और कथा दोनों का योग रहता है।
इन कथा आधारों के बाद नाटक कथा को मुख्य तथा गौण अथवा प्रासंगिक भेदों में बांटा जाता है , इनमें से प्रासंगिक के भी आगे पताका और प्रकरी है । पताका प्रासंगिक कथावस्तु मुख्य कथा के साथ अंत तक चलती है जब प्रकरी बीच में ही समाप्त हो जाती है। इसके अतिरिक्त नाटक की कथा के विकास हेतु कार्य व्यापार की पांच अवस्थाएं प्रारंभ प्रयत्न , परपर्याशा नियताप्ति और कलागम होती है।
इसके अतिरिक्त नाटक में पांच संधियों का प्रयोग भी किया जाता है।
वास्तव में नाटक को अपनी कथावस्तु की योजना में पात्रों और घटनाओं में इस रुप में संगति बैठानी होती है कि पात्र कार्य व्यापार को अच्छे ढंग से अभिव्यक्त कर सके। नाटककार को ऐसे प्रसंग कथा में नहीं रखनी चाहिए जो मंच के संयोग ना हो यदि कुछ प्रसंग बहुत आवश्यक है तो नाटककार को उसकी सूचना कथा में दे देनी चाहिए।
2. पात्र एवं चरित्र चित्रण –
नाटक में नाटक का अपने विचारों , भावों आदि का प्रतिपादन पात्रों के माध्यम से ही करना होता है। अतः नाटक में पात्रों का विशेष स्थान होता है। प्रमुख पात्र अथवा नायक कला का अधिकारी होता है तथा समाज को उचित दशा तक ले जाने वाला होता है। भारतीय परंपरा के अनुसार वह विनयी , सुंदर , शालीनवान , त्यागी , उच्च कुलीन होना चाहिए। किंतु आज नाटकों में किसान , मजदूर आदि कोई भी पात्र हो सकता है। पात्रों के संदर्भ में नाटककार को केवल उन्हीं पात्रों की सृष्टि करनी चाहिए जो घटनाओं को गतिशील बनाने में तथा नाटक के चरित्र पर प्रकाश डालने में सहायक होते हैं।
3. संवाद –
नाटक में नाटकार के पास अपनी और से कहने का अवकाश नहीं रहता।
वह संवादों द्वारा ही वस्तु का उद्घाटन तथा पात्रों के चरित्र का विकास करता है।
अतः इसके संवाद सरल , सुबोध , स्वभाविक तथा पात्रअनुकूल होने चाहिए।
गंभीर दार्शनिक विषयों से इसकी अनुभूति में बाधा होती है।
इसलिए इनका प्रयोग नहीं करना चाहिए।
नीर सत्ता के निरावरण तथा पात्रों की मनोभावों की मनोकामना के लिए कभी-कभी स्वागत कथन तथा गीतों की योजना भी आवश्यक समझी गई है।
4. देशकाल वातावरण –
देशकाल वातावरण के चित्रण में नाटककार को युग अनुरूप के प्रति विशेष सतर्क रहना आवश्यक होता है। पश्चिमी नाटक में देशकाल के अंतर्गत संकलनअत्र समय स्थान और कार्य की कुशलता का वर्णन किया जाता है। वस्तुतः यह तीनों तत्व ‘ यूनानी रंगमंच ‘ के अनुकूल थे। जहां रात भर चलने वाले लंबे नाटक होते थे और दृश्य परिवर्तन की योजना नहीं होती थी।
परंतु आज रंगमंच के विकास के कारण संकलन का महत्व समाप्त हो गया है।
भारतीय नाट्यशास्त्र में इसका उल्लेख ना होते हुए भी नाटक में स्वाभाविकता , औचित्य तथा सजीवता की प्रतिष्ठा के लिए देशकाल वातावरण का उचित ध्यान रखा जाता है। इसके अंतर्गत पात्रों की वेशभूषा तत्कालिक धार्मिक , राजनीतिक , सामाजिक परिस्थितियों में युग का विशेष स्थान है।
अतः नाटक के तत्वों में देशकाल वातावरण का अपना महत्व है।
5. भाषा शैली –
नाटक सर्वसाधारण की वस्तु है अतः उसकी भाषा शैली सरल , स्पष्ट और सुबोध होनी चाहिए , जिससे नाटक में प्रभाविकता का समावेश हो सके तथा दर्शक को क्लिष्ट भाषा के कारण बौद्धिक श्रम ना करना पड़े अन्यथा रस की अनुभूति में बाधा पहुंचेगी।
अतः नाटक की भाषा सरल व स्पष्ट रूप में प्रवाहित होनी चाहिए।
नाटक के तत्व को वीडियो फॉर्मेट में भी आप समझ सकते हैं। अगर आप संपूर्ण जानकारी प्राप्त करना चाहते हैं तो नीचे दी गई वीडियो को प्ले करके देखें।
6. उद्देश्य –
सामाजिक के हृदय में रक्त का संचार करना ही नाटक का उद्देश्य होता है। नाटक के अन्य तत्व इस उद्देश्य के साधन मात्र होते हैं। भारतीय दृष्टिकोण सदा आशावादी रहा है इसलिए संस्कृत के प्रायः सभी नाटक सुखांत रहे हैं। पश्चिम नाटककारों ने या साहित्यकारों ने साहित्य को जीवन की व्याख्या मानते हुए उसके प्रति यथार्थ दृष्टिकोण अपनाया है उसके प्रभाव से हमारे यहां भी कई नाटक दुखांत में लिखे गए हैं , किंतु सत्य है कि उदास पात्रों के दुखांत अंत से मन खिन्न हो जाता है।
अतः दुखांत नाटको का प्रचार कम होना चाहिए।
7. अभिनेता
यह नाटक की प्रमुख विशेषता है।
नाटक को नाटक के तत्व प्रदान करने का श्रेय इसी को है।
यही नाट्यतत्व का वह गुण है जो दर्शक को अपनी ओर आकर्षित कर लेता है।
इस संबंध में नाटककार को नाटकों के रूप , आकार , दृश्यों की सजावट और उसके उचित संतुलन , परिधान , व्यवस्था , प्रकाश व्यवस्था आदि का पूरा ध्यान रखना चाहिए। दूसरे शब्दों में लेखक की दृष्टि रंगशाला के विधि – विधानों की ओर विशेष रुप से होनी चाहिए इसी में नाटक की सफलता निहित है।