दोहा एकादश का सरलार्थ
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sonualam0786:
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1)
जिस तरह कुम्हार अनगढ मिट्टी को तराशकर उसे सुंदर घडे की शक्ल दे देता है, उसी तरह गुरु भी अपने शिष्य को हर तरह का ज्ञान देकर उसे विद्वान और सम्मानीय बनाता है। हां, ऐसा करते हुए गुरु अपने शिष्यों के साथ कभी-कभी कडाई से भी पेश आ सकता है, लेकिन जैसे एक कुम्हार घडा बनाते समय मिट्टी को कड़े हाथों से गूंथना जरूरी समझता है, ठीक वैसे ही गुरु को भी ऐसा करना पड़ता है। वैसे यदि आपने किसी कुम्हार को घड़ा बनाते समय ध्यान से देखा होगा, तो यह जरूर गौर किया होगा कि वह बाहर से उसे थपथपाता जरूर है, लेकिन भीतर से उसे बहुत प्यार से सहारा भी देता है।
2)
है भगवान ! तुम्हारे नाम का जाप करते करते मैं तुम जैसा हो गया हूं। अब मेरे मन में सांसारिक वासना, ममता एवं तृष्णा नहीं है। मैं तुम्हारे अविनाशी नाम और ज्ञान के ऊपर न्यौछावार हूं। मेरी दृष्टि जिधर भी घूमती है उधर तुम्हारा ही स्वरूप दिखायी देता है।
तीसरा मैंने पढ़ा नही है । माफ करना अपूर्ण जानकारी के लिए।
जिस तरह कुम्हार अनगढ मिट्टी को तराशकर उसे सुंदर घडे की शक्ल दे देता है, उसी तरह गुरु भी अपने शिष्य को हर तरह का ज्ञान देकर उसे विद्वान और सम्मानीय बनाता है। हां, ऐसा करते हुए गुरु अपने शिष्यों के साथ कभी-कभी कडाई से भी पेश आ सकता है, लेकिन जैसे एक कुम्हार घडा बनाते समय मिट्टी को कड़े हाथों से गूंथना जरूरी समझता है, ठीक वैसे ही गुरु को भी ऐसा करना पड़ता है। वैसे यदि आपने किसी कुम्हार को घड़ा बनाते समय ध्यान से देखा होगा, तो यह जरूर गौर किया होगा कि वह बाहर से उसे थपथपाता जरूर है, लेकिन भीतर से उसे बहुत प्यार से सहारा भी देता है।
2)
है भगवान ! तुम्हारे नाम का जाप करते करते मैं तुम जैसा हो गया हूं। अब मेरे मन में सांसारिक वासना, ममता एवं तृष्णा नहीं है। मैं तुम्हारे अविनाशी नाम और ज्ञान के ऊपर न्यौछावार हूं। मेरी दृष्टि जिधर भी घूमती है उधर तुम्हारा ही स्वरूप दिखायी देता है।
तीसरा मैंने पढ़ा नही है । माफ करना अपूर्ण जानकारी के लिए।
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