दो कालाकार कहानी की सीख व सार I
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दो कालाकार कहानी का उद्देश्य यह है की मानव जीवन में कला और संस्कृति का बहुत महत्त्व है। कला के विभिन्न रूपों के माध्यम से मानव-जीवन में आदर्श और यथार्थ का मिलन संभव होता है।
इस कहानी में चित्रा ने मृत भिखारिन और उसके दो अनाथ बच्चों की तस्वीर बनाकर जीवन के कटु सत्य को तो अभिव्यक्त कर दिया किन्तु उन बच्चों की अनदेखी कर उसने कला के सबसे महत्त्वपूर्ण हिस्से शिवम् की अवहेलना कर दी। अत: चित्रा को प्रसिद्धि तो प्राप्त तोह हुई किंतु वह एक सर्वोत्तम कलाकार नही बन सकी।
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इस कहानी में चित्रा ने मृत भिखारिन और उसके दो अनाथ बच्चों की तस्वीर बनाकर जीवन के कटु सत्य को तो अभिव्यक्त कर दिया किन्तु उन बच्चों की अनदेखी कर उसने कला के सबसे महत्त्वपूर्ण हिस्से शिवम् की अवहेलना कर दी। अत: चित्रा को प्रसिद्धि तो प्राप्त तोह हुई किंतु वह एक सर्वोत्तम कलाकार नही बन सकी।
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कहानी
‘‘ऐ रूनी, उठ’’ और चादर खींचकर, चित्रा ने सोती हुई अरुणा को झकझोरकर उठा दिया.
‘‘क्या है...क्यों परेशान कर रही हो?’’ आँख मलते हुए तनिक झुँझलाहट भरे स्वर में अरुणा ने पूछा. चित्रा उसका हाथ पकड़कर खींचती हुई ले गई और अपने नए बनाए हुए चित्र के सामने ले जाकर खड़ा करके बोली,‘‘देख, मेरा चित्र पूरा हो गया.’’


रेखांकन: लाल रत्नाकर
‘‘ओह! तो इसे दिखाने के लिए तूने मेरी नींद खराब कर दी. बद्तमीज कहीं की!’’
‘‘इस चित्र को ज़रा आँख खोलकर अच्छी तरह तो देख. न पा गई पहला इनाम तो नाम बदल देना.’’ चित्र को चारों ओर से घुमाते हुए अरुणा बोली,‘‘किधर से देखूं, यह तो बता दे? हज़ार बार तुझसे कहा कि जिसका चित्र बनाए उसका नाम लिख दिया कर जिससे ग़लतफहमी न हुआ करे, वरना तू बनाए हाथी और हम समझें उल्लू.’’ फिर तस्वीर पर आँख गड़ाते हुए बोली,‘‘किसी तरह नहीं समझ पा रही हूँ कि चौरासी लाख योनियों में से आखिर यह किस जीव की तस्वीर है?’’
‘‘तो आपको यह कोई जीव नज़र आ रहा है? अरे, ज़रा अच्छी तरह देख और समझने की कोशिश कर.’’
‘‘यह क्या? इसमें तो सड़क, आदमी, ट्राम, बस, मोटर, मकान सब एक-दूसरे पर चढ़ रहे हैं, मानो सबकी खिचड़ी पकाकर रख दी हो. क्या घनचक्कर बनाया है?’’ और उसने वह चित्र रख दिया.
‘‘ज़रा सोचकर बता कि यह किसका प्रतीक है?’’
‘‘तेरी बेवकूफ़ी का. आई है बड़ी प्रतीकवाली.’’
‘‘ज़रा सा दिमाग लगाने की कोशिश करेगी तो समझ में आ जाएगा कि यह चित्र आज की दुनिया के ‘कंफ्यूज़न’ का प्रतीक है. बस, हाँ थोड़ा दिमाग होना ज़रूरी है.’’ चित्रा ने चुटकी ली तो अरुणा भभक उठी.
‘‘मुझे तो तेरे दिमाग में कंफ्यूज़न का प्रतीक नज़र आ रहा है. बिना मतलब ज़िंदगी ख़राब कर रही है.’’ और अरुणा मुँह धोने के लिए बाहर चली गई. लौटी तो देखा तीन-चार बच्चे उसके कमरे के दरवाज़े पर खड़े उसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं. आते ही बोले,‘‘दीदी! सब बच्चे आकर बैठ गए, चलिए.’’
‘‘आ गए सब बच्चे? अच्छा चलो, मैं अभी आई.’’ बच्चे दौड़ पड़े.
‘‘क्या ये बंदर पाल रखे हैं तूने भी? फिर ज़रा हँसकर चित्रा बोली,‘‘एक दिन तेरी पाठशाला का चित्र बनाना होगा. ज़रा लोगों को दिखाया ही करेंगे कि हमारी एक ऐसी मित्र साहब थीं जो सारे जमादार, दाइयों और चपरासियों के बच्चों को पढ़ा-पढ़ाकर ही अपने को भारी पंडिता और समाज-सेविका समझती थी.’’
‘‘जा-जा समझते हैं तो समझते हैं. तू जाकर सारी दुनिया में ढिंढोरा पीटना, हमें कोई शर्म है क्या? तेरी तरह लकीरें खींचकर तो समय बर्बाद नहीं करते.’’ और पैर में चप्पल डालकर वह बाहर मैदान में चली गई, जहाँ बिना किसी आयोजन के ही एक छोटी सी पाठशाला बनी हुई थी.
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‘‘क्या है...क्यों परेशान कर रही हो?’’ आँख मलते हुए तनिक झुँझलाहट भरे स्वर में अरुणा ने पूछा. चित्रा उसका हाथ पकड़कर खींचती हुई ले गई और अपने नए बनाए हुए चित्र के सामने ले जाकर खड़ा करके बोली,‘‘देख, मेरा चित्र पूरा हो गया.’’


रेखांकन: लाल रत्नाकर
‘‘ओह! तो इसे दिखाने के लिए तूने मेरी नींद खराब कर दी. बद्तमीज कहीं की!’’
‘‘इस चित्र को ज़रा आँख खोलकर अच्छी तरह तो देख. न पा गई पहला इनाम तो नाम बदल देना.’’ चित्र को चारों ओर से घुमाते हुए अरुणा बोली,‘‘किधर से देखूं, यह तो बता दे? हज़ार बार तुझसे कहा कि जिसका चित्र बनाए उसका नाम लिख दिया कर जिससे ग़लतफहमी न हुआ करे, वरना तू बनाए हाथी और हम समझें उल्लू.’’ फिर तस्वीर पर आँख गड़ाते हुए बोली,‘‘किसी तरह नहीं समझ पा रही हूँ कि चौरासी लाख योनियों में से आखिर यह किस जीव की तस्वीर है?’’
‘‘तो आपको यह कोई जीव नज़र आ रहा है? अरे, ज़रा अच्छी तरह देख और समझने की कोशिश कर.’’
‘‘यह क्या? इसमें तो सड़क, आदमी, ट्राम, बस, मोटर, मकान सब एक-दूसरे पर चढ़ रहे हैं, मानो सबकी खिचड़ी पकाकर रख दी हो. क्या घनचक्कर बनाया है?’’ और उसने वह चित्र रख दिया.
‘‘ज़रा सोचकर बता कि यह किसका प्रतीक है?’’
‘‘तेरी बेवकूफ़ी का. आई है बड़ी प्रतीकवाली.’’
‘‘ज़रा सा दिमाग लगाने की कोशिश करेगी तो समझ में आ जाएगा कि यह चित्र आज की दुनिया के ‘कंफ्यूज़न’ का प्रतीक है. बस, हाँ थोड़ा दिमाग होना ज़रूरी है.’’ चित्रा ने चुटकी ली तो अरुणा भभक उठी.
‘‘मुझे तो तेरे दिमाग में कंफ्यूज़न का प्रतीक नज़र आ रहा है. बिना मतलब ज़िंदगी ख़राब कर रही है.’’ और अरुणा मुँह धोने के लिए बाहर चली गई. लौटी तो देखा तीन-चार बच्चे उसके कमरे के दरवाज़े पर खड़े उसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं. आते ही बोले,‘‘दीदी! सब बच्चे आकर बैठ गए, चलिए.’’
‘‘आ गए सब बच्चे? अच्छा चलो, मैं अभी आई.’’ बच्चे दौड़ पड़े.
‘‘क्या ये बंदर पाल रखे हैं तूने भी? फिर ज़रा हँसकर चित्रा बोली,‘‘एक दिन तेरी पाठशाला का चित्र बनाना होगा. ज़रा लोगों को दिखाया ही करेंगे कि हमारी एक ऐसी मित्र साहब थीं जो सारे जमादार, दाइयों और चपरासियों के बच्चों को पढ़ा-पढ़ाकर ही अपने को भारी पंडिता और समाज-सेविका समझती थी.’’
‘‘जा-जा समझते हैं तो समझते हैं. तू जाकर सारी दुनिया में ढिंढोरा पीटना, हमें कोई शर्म है क्या? तेरी तरह लकीरें खींचकर तो समय बर्बाद नहीं करते.’’ और पैर में चप्पल डालकर वह बाहर मैदान में चली गई, जहाँ बिना किसी आयोजन के ही एक छोटी सी पाठशाला बनी हुई थी.
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