' दुख जीवन को निखरता है ' इस विषय पर एक लघुकथा लिखिए।
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[जिसके जीवन में जितने दुख होते हैं, वह उतना ही सबल होकर सुख की यात्रा पर निकलता है। क्योंकि दुख विपरीत स्थितियों से जूझने की क्षमता का विकास कर हमारी ऊर्जा को जगाता है..]
कभी-कभी मौसम में बड़ी विषमता दिखाई देती है। गर्मियों में बारिश हो जाती है और ठंडी हवा मौसम को सुहावना बना देती है। बरसात के मौसम में बादलों का नामोनिशान तक नहीं रहता। न कीचड़, न दुर्गध और न ही गंदगी। कभी-कभी सर्दी के मौसम में ठंड और कोहरे-पाले से निजात मिल जाती है। हल्के-फुल्के कपड़ों में आराम से काम कर सकते है, घूम-फिर सकते है। लेकिन इन बदलावों में खुश होने की जरूरत नहीं, क्योंकि मौसम में इस प्रकार की प्रतिकूलता हमारे हित में नहींहोती।
एक कहावत है, 'जितने दिन जेठ तपता है, उतने ही दिन सावन भी बरसता है।' जेठ में जितने दिन पुरवाई चलती है, हवा ठंडी हो जाती है, उतने ही दिन सावन में धूल उड़ती है। जेठ नहीं तपेगा, तो सावन भी नहीं बरसेगा। लेकिन एक बात यह भी है कि यदि ग्रीष्म कष्टदायक है, तो वर्षा आनंददायक। यही बात मनुष्य के जीवन में सुख-दुख के संबंध में उतनी ही सटीक है। ज्येष्ठ कष्ट का प्रतीक है, तो सावन आनंद का, लेकिन एक के बिना दूसरे की प्राप्ति असंभव है। इसी प्रकार दुख के बिना सुख का अनुभव भी असंभव है।
व्यक्ति तथा समाज दोनों के विकास के लिए परस्पर विरोधी भावों अथवा ऊर्जा की उपस्थिति अनिवार्य है। किसी भाव के कारण ही अभाव का तथा अभाव विशेष के कारण ही भाव विशेष का महत्व है। मृत्यु, अंधकार, विषमता, विरह अथवा अपमान आदि के उपस्थित होने पर ही जीवन की अमरता, प्रकाश, अनुकूलता, मिलन अथवा मान-सम्मान के भाव की अनुभूति की जा सकती है। इसी प्रकार यदि दुख नहीं आएगा, तो सुख भी नहीं आएगा, क्योंकि दुख की अनुभूति के बाद ही संभव है सुख की अनुभूति।
यदि हम अपने जीवन में घटित हुए दुखों का अवलोकन करें, तो पाएंगे कि हमें जीवन में जाने कितने दुख और कष्ट झेलने पड़ते हैं, अवमानना सहनी पड़ती है, उन्हें दूर भी करना होता है। यदि हम अपने जीवन में आने वाले कष्टों का विश्लेषण करें, तो पाते हैं कि कुछ कष्ट या कोई कष्ट विशेष जीवन में सबसे ज्यादा पीड़ित करता रहा, लेकिन साथ ही हम यह भी पाते हैं कि इस एक बड़े कष्ट के कारण हम असंख्य छोटे-छोटे कष्टों को भूल जाते हैं। इसका अर्थ यह है कि हर कष्ट अपने से छोटे कष्टों को छोटा कर देता है। हर परेशानी दूसरी परेशानियों को प्रभावहीन कर देती है। जिसे हम बड़ी परेशानी मानते हैं, यदि वह न होती, तो इससे छोटी परेशानी भी तब कम कष्टदायक न होती। लेकिन बड़ी परेशानियों के कारण हम छोटी परेशानियों से उबर जाते हैं, जो हमारे आनंद के लिए ही नहीं, उन्नति के लिए भी अनिवार्य है।
कष्टों से जूझने की क्षमता का विकास कर देता है दुख। जितना बड़ा दुख, उतना ही क्षमतावान मनुष्य। हम कष्टों और समस्याओं से पलायन कर स्वयं अपने सुखों से दूर होते जाते हैं। असीमित उपभोग द्वारा भी हम अपने दुखों को कम कर लेते हैं। शरीर को जितना अधिक आराम और सुविधाएं देते हैं, वह उतना ही निष्क्रिय और जड़ होता जाता है। परिश्रम अथवा व्यायाम करेंगे, तो थोड़ा कष्ट तो जरूर होगा, पर स्वस्थ शरीर का सुख भी मिलेगा। कम खाएंगे तथा भूख लगने पर खाएंगे, तो भोजन के स्वाद का सुख भी मिलेगा। जो सारे दिन खाद्य-अखाद्य का उपभोग करते रहते हैं, उनके लिए भोजन में स्वाद का सुख कहां? इस प्रकार दुख को सहन करने से हमारी ऊर्जा जागती है। हमारी क्षमताओं का विकास होता जाता है।
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