दुख का अधिकार’ इस पाठ का शीर्षक कहाँ तक सार्थक है? स्पष्ट कीजिए।
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इस कहानी में उस बुढ़िया के विषय में बताया गया है, जिसका बेटा मर गया है। धन के अभाव में बेटे की मृत्यु के अगले दिन ही वृद्धा को बाज़ार में खरबूज़े बेचने आना पड़ता है। बाज़ार के लोग उसकी मजबूरी को अनदेखा करते हुए, उस वृद्धा को बहुत भला-बुरा बोलते हैं। कोई घृणा से थूककर बेहया कह रहा था, कोई उसकी नीयत को दोष दे रहा था,कोई रोटी के टुकड़े पर जान देने वाली कहता, कोई कहता इसके लिए रिश्तों का कोई मतलब नहीं है, परचून वाला कहता,यह धर्म ईमान बिगाड़कर अंधेर मचा रही है, इसका खरबूज़े बेचना सामाजिक अपराध है। इन दिनों कोई भी उसका सामान छूना नहीं चाहता था। यदि उसके पास पैसे होते, तो वह कभी भी सूतक में सौदा बेचने बाज़ार नहीं जाती।
दूसरी ओर लेखक के पड़ोस में एक संभ्रांत महिला रहती थी जिसके बेटे की मृत्यु हो गई थी। उस महिला का पास शोक मनाने का असीमित समय था। अढ़ाई मास से पलंग पर थी,डॉक्टर सिरहाने बैठा रहता था।
लेखक दोनों की तुलना करना चाहता था। इस कहानी से स्पष्ट है कि दुख मनाने का अधिकार भी उनके पास है, जिनके पास पैसा हो। निर्धन व्यक्ति अपने दुख को अपने मन में ही रख लेते हैं। वह इसे प्रकट नहीं कर पाते। इसलिए इस पाठ का शीर्षक दुःख का अधिकार सार्थक है।
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