दुःख का अधिकार' पाठ समाज की किस विसंगति को संकेतित करता है ? class 9
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प्रश्न - 'दुख का अधिकार' पाठ का सार लिखिए ?
उत्तर - 'दुख का अधिकार' पाठ के माध्यम से लेखक यशपाल जी ने समाज में उपस्थित अंधविश्वासों पर प्रहार किया है। लोगों की गरीबों के प्रति मानसिकता को भी उन्होंने इस कहानी के माध्यम से दर्शाया है। किसी भी भू-भाग में चले जाएँ अमीरी और गरीबी का अंतर आपको स्पष्ट रूप से दिख जाएगा। परंतु इस आधार पर किसी के साथ अमानवीय व्यवहार करना हमें नहीं सुहाता।
लेखक पाठ के माध्यम से एक वृद्ध स्त्री के दुख का वर्णन करता है। उस वृद्ध स्त्री का एक ही बेटा था। उसकी अकाल मृत्यु हो जाती है। घर की सारी ज़िम्मेदारी वृद्ध स्त्री पर आ जाती है। धन के अभाव में बेटे की मृत्यु के अगले दिन ही वृद्धा को बाज़ार में खरबूज़े बेचने आना पड़ता है। आस-पास के लोग उसकी मजबूरी को अनदेखा करते हुए, उस वृद्धा को बहुत भला-बुरा बोलते हैं। लेखक समाज को यही संदेश देना चाहते हैं कि गरीबों की मजबूरी को कभी अनदेखा नहीं करना चाहिए।
यह सत्य है कि दुख समान रूप से सबके जीवन में आता है। सभी अपनों के जाने का दुख मनाना चाहते हैं पर अपनी आर्थिक स्थिति के कारण मना नहीं पाते। भारत जैसे देश में बहुत से लोग हैं, जिन्हें यह समाज दुख मनाने का अधिकार भी नहीं देता है। यह हमारे लिए विडंबना की बात है।
दुःख का अधिकार पाठ प्रवेश
इस पाठ में लेखक समाज में होने वाले उच्च वर्ग और निम्न वर्ग के भेदभाव को दर्शा रहा है। यहाँ लेखक अपने एक अनुभव को साँझा करते हुए कहता है कि दुःख मनाने का अधिकार सभी को होता है फिर चाहे वह समाज के किसी भी वर्ग का हो।
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दुःख का अधिकार पाठ सार
लेखक के अनुसार मनुष्यों का पहनावा ही समाज में मनुष्य का अधिकार और उसका दर्ज़ा निश्चित करता है। परन्तु लेखक कहता है कि समाज में कभी ऐसी भी परिस्थिति आ जाती है कि हम समाज के ऊँचे वर्गों के लोग छोटे वर्गों की भावनाओं को समझना चाहते हैं परन्तु उस समय समाज में उन ऊँचे वर्ग के लोगों का पहनावा ही उनकी इस भावना में बाधा बन जाती है।
लेखक अपने द्वारा अनुभव किये गए एक दृश्य का वर्णन करता हुआ कहता है कि एक दिन लेखक ने बाज़ार में, फुटपाथ पर कुछ खरबूजों को टोकरी में और कुछ को ज़मीन पर रखे हुए देखा। खरबूजों के नज़दीक ही एक ढलती उम्र की औरत बैठी रो रही थी।
लेखक कहता है कि खरबूज़े तो बेचने के लिए ही रखे गए थे, परन्तु उन्हें खरीदने के लिए कोई कैसे आगे बढ़ता? क्योंकि खरबूजों को बेचने वाली औरत ने तो कपड़े में अपना मुँह छिपाया हुआ था और उसने अपने सिर को घुटनों पर रखा हुआ था और वह बुरी तरह से बिलख - बिलख कर रो रही थी। लेखक कहता है कि उस औरत का रोना देखकर लेखक के मन में दुःख की अनुभूति हो रही थी, परन्तु उसके रोने का कारण जानने का उपाय लेखक को समझ नहीं आ रहा था क्योंकि फुटपाथ पर उस औरत के नज़दीक बैठ सकने में लेखक का पहनावा लेखक के लिए समस्या खड़ी कर रहा था क्योंकि लेखक ऊँचे वर्ग का था और वह औरत छोटे वर्ग की थी।
लेखक कहता है कि उस औरत को इस अवस्था में देख कर एक आदमी ने नफरत से एक तरफ़ थूकते हुए कहा कि देखो क्या ज़माना है! जवान लड़के को मरे हुए अभी पूरा दिन नहीं बीता और यह बेशर्म दुकान लगा के बैठी है। वहीं खड़े दूसरे साहब अपनी दाढ़ी खुजाते हुए कह रहे थे कि अरे, जैसा इरादा होता है अल्ला भी वैसा ही लाभ देता है।
लेखक कहता है कि सामने के फुटपाथ पर खड़े एक आदमी ने माचिस की तीली से कान खुजाते हुए कहा अरे, इन छोटे वर्ग के लोगों का क्या है? इनके लिए सिर्फ रोटी ही सबसे ज़्यादा महत्वपूर्ण होती है।
इनके लिए बेटा-बेटी, पति-पत्नी, धर्म-ईमान सब रोटी का टुकड़ा है। इन छोटे लोगों के लिए कोई भी रिश्ता रोटी नहीं है। जब लेखक को उस औरत के बारे में जानने की इच्छा हुई तो लेखक ने वहाँ पास-पड़ोस की दुकानों से उस औरत के बारे में पूछा और पूछने पर पता लगा कि उसका तेईस साल का एक जवान लड़का था।
घर में उस औरत की बहू और पोता-पोती हैं। उस औरत का लड़का शहर के पास डेढ़ बीघा भर ज़मीन में सब्जियाँ उगाने का काम करके परिवार का पालन पोषण करता था। लड़का परसों सुबह अँधेरे में ही बेलों में से पके खरबूजे चुन रहा था। खरबूजे चुनते हुए उसका पैर दो खेतों की गीली सीमा पर आराम करते हुए एक साँप पर पड़ गया।
साँप ने लड़के को डस लिया।लेखक कहता है कि जब उस औरत के लड़के को साँप ने डँसा तो उस लड़के की यह बुढ़िया माँ पागलों की तरह भाग कर झाड़-फूँक करने वाले को बुला लाई। झाड़ना-फूँकना हुआ। नागदेव की पूजा भी हुई।
लेखक कहता है कि पूजा के लिए दान-दक्षिणा तो चाहिए ही होती है। उस औरत के घर में जो कुछ आटा और अनाज था वह उसने दान-दक्षिणा में दे दिया। पर भगवाना जो एक बार चुप हुआ तो फिर न बोला। लेखक कहता है कि ज़िंदा आदमी नंगा भी रह सकता है, परंतु मुर्दे को नंगा कैसे विदा किया जा सकता है? उसके लिए तो बजाज की दुकान से नया कपड़ा लाना ही होगा, चाहे उसके लिए उस लड़के की माँ के हाथों के ज़ेवर ही क्यों न बिक जाएँ।
लेखक कहता है की भगवाना तो परलोक चला गया और घर में जो कुछ भी अनाज और पैसे थे वह सब उसके अन्तिम संस्कार करने में लग गए। लेखक कहता है कि बाप नहीं रहा तो क्या, लड़के सुबह उठते ही भूख से बिलबिलाने लग गए। अब बेटे के बिना बुढ़िया को दुअन्नी-चवन्नी भी कौन उधार देता।
क्योंकि समाज में माना जाता है कि कमाई केवल लड़का कर सकता है और उस औरत के घर में कमाई करना वाला लड़का मर गया था तो अगर कोई उधार देने की सोचता तो यह सोच कर नहीं देता कि लौटाने वाला उस घर में कोई नहीं है। यही कारण था कि बुढ़िया रोते-रोते और आँखें पोंछते-पोंछते भगवाना के बटोरे हुए खरबूजे टोकरी में समेटकर बाज़ार की ओर बेचने के लिए आ गई।
उस बेचारी औरत के पास और चारा भी क्या था? लेखक कहता है कि बुढ़िया खरबूजे बेचने का साहस करके बाज़ार तो आई थी, परंतु सिर पर चादर लपेटे, सिर को घुटनों पर टिकाए हुए अपने लड़के के मरने के दुःख में बुरी तरह रो रही थी। लेखक अपने आप से ही कहता है कि कल जिसका बेटा चल बसा हो, आज वह बाजार में सौदा बेचने चली आई है, इस माँ ने किस तरह अपने दिल को पत्थर किया होगा?
लेखक कहता है कि जब कभी हमारे मन को समझदारी से कोई रास्ता नहीं मिलता तो उस कारण बेचैनी हो जाती है जिसके कारण कदम तेज़ हो जाते हैं। लेखक भी उसी हालत में नाक ऊपर उठाए चल रहा था और अपने रास्ते में चलने वाले लोगों से ठोकरें खाता हुआ चला जा रहा था और सोच रहा था कि शोक करने और गम मनाने के लिए भी इस समाज में सुविधा चाहिए और... दुःखी होने का भी एक अधिकार होता है।