दालों के बढ़ते दाम के ऊपर प्रतिवेदन
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जब मैं विद्यार्थी था तो मुझे इस बात ने बहुत चौंकाया था कि हमारे यहां मिलने वाले चने को अंग्रेजी में 'चिक पी' कहा जाता है और अरहर को 'पिजन पी'। मैंने जाना चूंकि दालें योरपीय खानपान का महत्वपूर्ण हिस्सा नहीं है और ब्रिटेन-फ्रांस में चना मुर्गे-मुर्गियों को खिलाया जाता है, अरहर की दाल कबूतरों को तो इसी कारण वे इन्हें क्रमश: 'चिक पी' और 'पिजन पी' कहते हैं। विदेशों में दाल का महत्व वहीं तक सिमटा है लेकिन भारत में वे हमारे खानपान का अहम हिस्सा हैं। एक सामान्य भारतीय परिवार का गुजारा दाल के बिना संभव नहीं होता है।
बहुत से शाकाहारियों के लिए दाल प्रोटीन का एक महत्वपूर्ण स्रोत है लेकिन दुर्भाग्य से बढ़ते दामों के चलते यही दाल आम आदमी की थाली से दूर हो रही है। शहर में अच्छी जिंदगी जीने वाले शायद दाल के बढ़ते दामों से उतने प्रभावित नहीं हो रहे हैं लेकिन गाम्रीण और शहरों में हाशिए पर जिंदगी गुजारने वालों के लिए दाल के बढ़ते दामों का संकट बड़ी चिंता विषय है। दालों का मौजूदा संकट भारतीय कृषि में दलहनी फसलों की उपेक्षा की ओर भी हमारा ध्यान खींचता है जिस तरफ अमूमन देखा नहीं जाता है।यह समझने की जरूरत है कि दाल के दाम आसमान पर रहें या जमीन पर किसान को अधिकतम 45 रु. प्रति किग्रा से ज्यादा आय नहीं मिलती है। अगर प्रोसेसिंग और पैकेजिंग लागत 2 रु. और जोड़ भी दी जाए तो भी मुनाफे के बाद दाल के दाम अधिकतम 60 रु. से ज्यादा नहीं होने चाहिए। लेकिन दाल के भाव 160 से 190 रु. के बीच हैं तो इसके पीछे के कारण देखने ही होंगे। इसी वर्ष अप्रैल से दालों के दाम में तेजी आना शुरू हुई जो बेलगाम बनी हुई है।दरअसल देश में दालों की कुल खपत 180 लाख टन है और 2014-15 में देश में पैदावार भी लगभग 180 लाख टन थी, इसके साथ ही ट्रेडर्स ने करीब 41 लाख टन दालों का आयात भी किया था। लेकिन मुनाफा कमाने वालों ने दाल की कमी पैदा करके अपना खेल दिखा दिया था। सरकार ने खरीफ मौसम की दालों की खरीद पर प्रति क्विंटल 200 रु. बोनस देने की घोषणा भी की पर तब तक देश में दालों के भाव पहुंच से बाहर हो गए।