Hindi, asked by brrainly8527, 11 months ago

ठेले पर हिमालय पथ के आधार पर पर्वतीय प्राकृतिक संबंध लिखिए।

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Answered by panesarprince6
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Answer:

ठेले पर हिमालय' - खासा दिलचस्‍प शीर्षक है न। और यकीन कीजिए, इसे बिलकुल ढूँढ़ना नहीं पड़ा। बैठे-बिठाए मिल गया। अभी कल की बात है, एक पान की दूकान पर मैं अपने एक गुरुजन उपन्‍यासकार मित्र के साथ खड़ा था कि ठेले पर बर्फ की सिलें लादे हुए बर्फ वाला आया। ठण्‍डे, चिकने चमकते बर्फ से भाप उड़ रही थी। मेरे मित्र का जन्‍म स्‍थान अल्‍मोड़ा है, वे क्षण-भर उस बर्फ को देखते रहे, उठती हुई भाप में खोए रहे और खोए-खोए से ही बोले, 'यही बर्फ तो हिमालय की शोभा है।' और तत्‍काल शीर्षक मेरे मन में कौंध गया, 'ठेले पर हिमालय'। पर आपको इसलिए बता रहा हूँ कि अगर आप नए कवि हों तो भाई, इसे ले जाएँ और इस शीर्षक पर दो तीन सौ पंक्तियाँ, बेडौल, बेतुकी लिख डालें शीर्षक मौजूँ है, और अगर नई कविता से नाराज हों, सुललित गीतकार हों तो भी गुंजाइश है, इस बर्फ को डाटे, उतर आओ। ऊँचे शिखर पर बन्‍दरों की तरह क्‍यों चढ़े बैठे हो? ओ नए कवियो। ठेले पर लदो। पान की दूकानों पर बिको। [1]

ये तमाम बातें उसी समय मेरे मन में आईं और मैंने अपने गुरुजन मित्र को बताईं भी। वे हँसे भी, पर मुझे लगा कि वह मुझे लगा कि वह बर्फ कहीं उनके मन को खरोंच गई है और ईमान की बात यह है कि जिसने 50 मील दूर से भी बादलों के बीच नीले आकाश में हिमालय की शिखर रेखा को चाँद तारों से बात करते देखा है, चाँदनी में उजली बर्फ को धुँधली हलके नीले जाल में दूधिया समुद्र की तरह मचलते और जगमगाते देखा है, उसके मन पर हिमालय की बर्फ एक ऐसी खरोंच छोड़ जाती है जो हर बार याद आने पर पिरा उठती है। मैं जानता हूँ, क्‍योंकि वह बर्फ मैंने भी देखी है।

सच तो यह है कि सिर्फ बर्फ को बहुत निकट से देख पाने के लिए ही हम लोग कौसानी गए थे। नैनीताल से रानीखेत और रानीखेत से मझकाली के भयानक मोड़ों को पार करते हुए कोसी। कोसी से एक सड़क अल्‍मोड़े चली जाती है, दूसरी कौसानी। कितना कष्‍टप्रद, कितना सूखा और कितना कुरुप है वह रास्‍ता। पानी का कहीं नाम निशान नहीं, सूखे भूरे पहाड़, हरियाली का नाम नहीं। ढालों को काटकर बनाये हुए टेढ़े मेढ़े रास्‍ते पर अल्‍मोड़े का एक नौसिखिया और लापरवाह ड्राइबर जिसने बस के तमाम मुसाफिरों की ऐसी हालत कर दी कि जब हम कोसी पहुँचे तो सभी के चेहरे पीले पड़ चुके थे। कौसानी जाने वाले सिर्फ हम दो थे, वहाँ उतर गए। बस अल्‍मोड़े चली गई। सामने के एक टीन के शेड में काठ की बेंच पर बैठकर हम वक्‍त काटते रहे। तबीयत सुस्‍त थी और मौसम में उमस थी। दो घंटे बाद दूसरी लारी आकर रुकी और जब उसमें से प्रसन्‍न बदन शुक्‍ल जी को उतरते देखा तो हम लोगों की जान में जान आई। शुक्‍ल जी जैसा सफर का साथी पिछले जन्‍म के पुण्‍यों से ही मिलता है। उन्‍होंने हमें कौसानी आने का उत्‍साह दिलाया था। और खुद तो कभी उनके चेहरे पर थकान या सुस्‍ती दीखी ही नहीं, पर उन्‍हें देखते ही हमारी भी सारी थकान काफूर हो जाया करती थी।

पर शुक्‍ल जी के साथ यह नई मूर्ति कौन है? लंबा

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