Hindi, asked by bijukumarmnj7804, 2 months ago

दुनिया न कचरे का ढेर कि जिस पर दानों को चुगने चढ़ा हुआ कोई भी कुक्कुट

Answers

Answered by mohansingh1234
0

Answer:

दुनिया न कचरे का ढेर कि जिस पर

दानों को चुगने चढ़ा हुआ कोई भी कुक्कुट

कोई भी मुर्गा

यदि बाँग दे उठे ज़ोरदार

बन जाए मसीहा”

मुक्तिबोध की कविता ‘अँधेरे में’ की ये पंक्तियाँ आधुनिक हिंदी कविता की कुछ सबसे याद रह गई पंक्तियाँ हैं.कठिन माने जाने वाले मुक्तिबोध में से काफी कुछ है जो हिंदी पाठक के मन में ही नहीं है, उसकी जुबान पर भी है जो उसकी अपनी जीवन स्थितियों या परिवेश को परिभाषित करने के लिए वह काम में लाती रही है.

‘अँधेरे में’ का यह प्रसंग बहुत दिलचस्प है. ये पंक्तियाँ कविता के भीतर शुरू से मौजूद वाचक की नहीं हैं, जिसे अक्सर कवि का प्रतिनिधि समझा गया है. शहर में मार्शल लॉ लगने के संकेतों को पहचान कर अपने साथी खोजने के लिए भागते हुए यह वाचक शहर के सपाट सुनसान में ऊंची खड़ी तिलक की पाषाण मूर्ति से गिरते अंगारों को देखता है .करीब जाने पर उनके पत्थरी होठों पर मुस्कान फूटती दीखती है लेकिन साथ ही वह यह देखकर स्तब्ध रह जाता है कि उनके भव्य ललाट की नासिका में से जाने कब से खून बह रहा है. “मानो अतिशय चिंता के कारण /मस्तक-कोष ही फूट पड़े सहसा/मस्तक-रक्त ही बह उठा नासिका में से.” पिता समान अपने इस नेता की इस गहरी चिंता को देख वह रोमांचित हो उठता है और उसका कर्तव्य बोध जाग उठता है: “ विवेक चलाता तीखा-सा रंदा/ चल रहा बसूला/ छीले जा रहा मेरा यह निजत्व ही कोई/भयानक जिद कोई जाग उठी मेरे भी अन्दर/ कोई भारी हठ जाग उठा है.”

तिलक की उदात्तता के बारे में और किसी ने नहीं गाँधी ने बड़े काव्यात्मक तरीके से लिखा कि वे हिमालय की तरह थे,जिनकी ऊँचाई और भव्यता उनके पास जाने में संकोच का कारण बन जाती थी.उनके मुकाबले गोखले में गाँधी को अधिक आत्मीयता का अनुभव हुआ.हम जानते हैं कि तिलक नहीं,गोखले गाँधी के गुरु थे. लेकिन कवि के वाचक-चरित्र को तिलक की यही भव्यता अपनी ओर खींचती है.

यह भी क्या संयोग है कि तिलक से मुलाक़ात और अपने भीतर आत्म-बोध जाग्रत होने के पश्चात् जब वह थककर ‘सोचने-विचारने’ बैठ जाता है तो उसे दूर से रोने की आवाज़ सुनाई देती है,मानो कोई ‘पाश्व प्राकृत वेदना भयानक  थरथरा रही’ हो. आत्म-चेतना की जागृति, सोचने विचारने और दूर किसी और की पीड़ा की पुकार से संवेदित होने के बीच एक गहरा रिश्ता है.

जब वह उसने सुनने का यत्न करता है तो अचानक उसे सामने बोरा ओढ़े हुए कोई दिखलाई पड़ता है. उसे यह सोच ही रहा है कि सर्दी में यह बोरा उसका बचाव न कर पाएगा कि वह बोरे से सर निकालता है और वाचक को सदमा लगता है: यह कोई परिचित है, जिसे खूब देखा और कई बार निरखा था लेकिन पाया नहीं था. और वह आश्चर्य से स्तंभित रह जाता है:ये तो गाँधीजी हैं जो लगता है, रूप बदलकर ‘सुरागरसी’,जांच-पड़ताल करने रात के अँधेरे में निकल पड़े हैं.वह उनके आगे नतमस्तक होता है कि वे उसे फटकारते हैं, “भाग जा, हट जा/हम हैं गुजर गए जमाने के चेहरे/ आगे तू बढ़ जा.”

तिलक में भव्यता का खिचाव है,गाँधी में दृढ़ता की कठिनता:“गंभीर दृढ़ता की सलवटें वैसी ही,शब्दों में गुरुता.” और इसी गुरु-गंभीर स्वर में वे चेतावनी देते हैं कि जब हर ऐरा-गैरा मसीहाई का भ्रम पाल ले तो उसे बता देना चाहिए कि यह दुनिया कोई कचरे का ढेर नहीं जिसपर दाने खोजते हुए चढ़ गया मुर्गा बांग देकर सोच बैठे कि वह नेता है और जनता का आह्वान कर रहा है.

कवि-कथन भविष्यवाणी होता भी है और नहीं भी लेकिन आज अगर मुक्तिबोध की ये पंक्तियाँ बार-बार याद आएँ तो आश्चर्य नहीं.अमरीका में डोनाल्ड ट्रम्प,रूस में व्लादिमीर पुतिन,फ्रांस में ले-पेन,तुर्की में इर्दोयान,अपने यहाँ नरेंद्र मोदी,और यह सूची अधूरी है,इन सबको भ्रम है कि वे जनता को या विश्व मात्र को कोई विशेष सन्देश देने के लिए ईश्वरीय विधान के द्वारा भेजे गए हैं.एक तरह का फूहड़ पैगम्बराना अंदाज इनकी वाचालता में मिलता है.

मुक्तिबोध के गाँधी शायद इन्हीं की ओर इशारा कर रहे थे. लेकिन खुद उनके वक्त भी ऐसे भ्रम पालने वाले ‘नेता’ थे:स्टालिन, मुसोलिनी,हिटलर और माओ.इन सबका ख्याल था कि जनता एक अपरिपक्व बालक है जिसे अभिभावक की ज़रूरत है,यह भी इन सबके पास जनता के लिए कोई विशेष सन्देश तो है ही,मानवता के भविष्य का नक्शा भी उन्हीं के पास है.उन्हें अपने कालजयी होने में भी संदेह न था.लेकिन काल के झाडू ने इन सबको बहारकर इतिहास के कूड़े में डाल दिया.या,अधिक से अधिक ऐसे उदाहरण के तौर पर ज़िंदा रखा जो इतिहास देवता के कोप भाजन बने.ये सब अपने समय के सबसे सफल, और लम्बे वक्त तक अविजित जान पड़ने लोग थे.जो असफल जान पड़े, जैसे यीशु या गाँधी,उन्हें कालातीत विश्व जनमानस ने अपने नैतिक संदर्भ या प्रस्थान बिन्दुओं की-सी प्रतिष्ठा दी.उनकी ‘असफलता’ जैसे जनता को अपनी न्यूनता या अपूर्णता का अहसास दिलाती है.

मुक्तिबोध ने स्टालिन पर भी कविता लिखी लेकिन वह एक कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य की कर्तव्य-विवशता की अभिव्यक्ति जान पड़ती है.उसमें वह आवेगपूर्ण लगाव या आवेश नहीं जो ‘अँधेरे में’ के इस अंश में तिलक और गांधी के सम्मुख या निकट जाकर पैदा होता है:”देह में तन गए करुणा के काँटे/छाती पर, सिर पर, बांहों पर मेरे/ गिरती हैं नीली बिजली की चिनगियाँ/रक्त टपकता है ह्रदय में मेरे/आत्मा में बहता सा लगता है/खून का तालाब.”

भविष्य कहाँ से पैदा होगा? क्या वह कोई ऐसा ख्याल है जो किसी महात्मा या तपस्वी पर नाजिल होता है, जैसा अकसर ‘महापुरुषों’ की गाथाओं में हमें बताया जाता है?मुक्तिबोध के गाँधी इससे अलग चेतावनी देते हैं,वे किसी ईश्वरीय सन्देश की प्रतीक्षा या किसी बड़े विचार के अनुसंधान के लिए गुहावास की जगह एक दूसरा स्रोत इस भविष्य का बताते हैं,“मिट्टी के लोंदे में किरणीले कण-कण/ गुण हैं,/जनता के गुणों से ही सम्भव भावी का उद्भव”

Similar questions