थौपा गया अनुशासन क्यू अच्छा नही माना जाता
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अनुशासन की पहली पाठशाला परिवार होता है और दूसरी विद्यालय। इसके बिना एक सभ्य समाज की कल्पना करना दुष्कर है। एक स्वस्थ समाज के निर्माण और संचालन में उस आबादी का बड़ा हाथ होता है, जो अपने किसी भी रूप में अनुशासनरूपी सूत्र में गुंथे होने से संभव हो पाता है। दरअसल, अनुशासन की प्रक्रिया रैखिक ही नहीं, बल्कि चक्रीय भी होती है। वह पीछे की और लौटती है, पर ठीक उसी रूप में नहीं। ऐसे में अगर अनुशासन को सरल रेखा खींच कर उसका स्वरूप निर्धारित करने का प्रयास किया जाए तो उसमें दुर्घटना की संभावनाएं हैं। जबकि ‘अनुशासन के बिना न तो परिवार चल सकता है और न ही संस्था और राष्ट्र।’ इसकी व्यापकता का अंदाजा इससे भी लगाया जा सकता है कि अनुशासन शब्द समाज की सबसे छोटी इकाई परिवार से लेकर ‘विश्व-समाज’ की अवधारणा तक अपने विभिन्न अर्थों के साथ किसी न किसी रूप में जुड़ा होता है। लेकिन अपने मूल अर्थ में अनुशासन का अभिप्राय एक ही होता है। देखना यह है कि क्या अनुशासन का स्वरूप भी सभी जगह एक-सा होता है, या परिवार, समाज, राष्ट्र और विश्व आदि हर स्तर पर इसका स्वरूप भी अलग-अलग होगा।
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थौपा गया अनुशासन इसलिए अच्छा नहीं माना जाता क्योंकि अनुशासन एक ऐसी भावना है जो मनुष्य में स्वयं जागृत होती है यह किसी के द्वारा थौपने से अपनाइ नहीं जा सकती। अनुशासन का यानी अनु+शासन का अर्थ होता है अपने ऊपर शासन। अपने ऊपर का शासन कोई दूसरा भला कैसे थौप सकता है। और अगर इसके बावजूद भी कोई दूसरा व्यक्ति अनुशासन स्थापना दूसरे पर करना चाहे तो इसकी कई हानिकारक प्रभाव हो सकते हैं। जैसे ज्यादा थौपने वाले को क्रोध हो सकता है, अनुशासन तोड़ने का जुनून चर सकता है इत्यादि। इसलिए स्वयं की अनुशासन ही सर्वोत्तम होती है।
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