Social Sciences, asked by haradhanm848, 5 months ago

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 42. चोल साम्राज्य में स्थानीय स्वशासन की महत्वपूर्ण विशेषताओं को लिखें।
प्रश्न 43. शेरशाह दवारा जनकल्याण के लिए कौन-कौन से कार्य किए गए थे वर्णन करें।​

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Answer:

चोल साम्राज्य

Explanation:

चोल (तमिल - சோழர்) प्राचीन भारत का एक राजवंश था। दक्षिण भारत में और पास के अन्य देशों में तमिल चोल शासकों ने 9 वीं शताब्दी से 13 वीं शताब्दी के बीच एक अत्यंत शक्तिशाली हिन्दू साम्राज्य का निर्माण किया।

'चोल' शब्द की व्युत्पत्ति विभिन्न प्रकार से की जाती रही है। कर्नल जेरिनो ने चोल शब्द को संस्कृत "काल" एवं "कोल" से संबद्ध करते हुए इसे दक्षिण भारत के कृष्णवर्ण आर्य समुदाय का सूचक माना है। चोल शब्द को संस्कृत "चोर" तथा तमिल "चोलम्" से भी संबद्ध किया गया है किंतु इनमें से कोई मत ठीक नहीं है। आरंभिक काल से ही चोल शब्द का प्रयोग इसी नाम के राजवंश द्वारा शासित प्रजा और भूभाग के लिए व्यवहृत होता रहा है। संगमयुगीन मणिमेक्लै में चोलों को सूर्यवंशी कहा है। चोलों के अनेक प्रचलित नामों में शेंबियन् भी है। शेंबियन् के आधार पर उन्हें शिबि से उद्भूत सिद्ध करते हैं। 12वीं सदी के अनेक स्थानीय राजवंश अपने को करिकाल से उद्भत कश्यप गोत्रीय बताते हैं।

चोलों का उदय : उपर्युक्त दीर्घकालिक प्रभुत्वहीनता के पश्चात् नवीं सदी के मध्य से चोलों का पुनरुत्थन हुआ। इस चोल वंश का संस्थापक विजयालय (850-870-71 ई.) पल्लव अधीनता में उरैयुर प्रदेश का शासक था। विजयालय की वंशपरंपरा में लगभग 20 राजा हुए, जिन्होंने कुल मिलाकर चार सौ से अधिक वर्षों तक शासन किया। विजयालय के पश्चात् आदित्य प्रथम (871-907), परातंक प्रथम (907-955) ने क्रमश: शासन किया। परांतक प्रथम ने पांड्य-सिंहल नरेशों की सम्मिलित शक्ति को, पल्लवों, बाणों, बैडुंबों के अतिरिक्त राष्ट्रकूट कृष्ण द्वितीय को भी पराजित किया। चोल शक्ति एवं साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक परांतक ही था। उसने लंकापति उदय (945-53) के समय सिंहल पर भी एक असफल आक्रमण किया। परांतक अपने अंतिम दिनों में राष्ट्रकूट सम्राट् कृष्ण तृतीय द्वारा 949 ई. में बड़ी बुरी तरह पराजित हुआ। इस पराजय के फलस्वरूप चोल साम्राज्य की नींव हिल गई। परांतक प्रथम के बाद के 32 वर्षों में अनेक चोल राजाओं ने शासन किया। इनमें गंडरादित्य, अरिंजय और सुंदर चोल या परातक दि्वतीय प्रमुख थे।

शासन व्यवस्था : चोलो के अभिलेखों आदि से ज्ञात होता है कि उनका शासन सुसंगठित था। राज्य का सबसे बड़ा अधिकारी राजा मंत्रियों एवं राज्याधिकारियों की सलाह से शासन करता था। शासनसुविधा की दृष्टि से सारा राज्य अनेक मंडलों में विभक्त था। मंडल कोट्टम् या बलनाडुओं में बँटे होते थे। इनके बाद की शासकीय परंपरा में नाडु (जिला), कुर्रम् (ग्रामसमूह) एवं ग्रामम् थे। चोल राज्यकाल में इनका शासन जनसभाओं द्वारा होता था। चोल ग्रामसभाएँ "उर" या "सभा" कही जाती थीं। इनके सदस्य सभी ग्रामनिवासी होते थे। सभा की कार्यकारिणी परिषद् (आडुगणम्) का चुनाव ये लोग अपने में से करते थे। उत्तरमेरूर से प्राप्त अभिलेख से उस ग्रामसभा के कार्यों आदि का विस्तृत ज्ञान प्राप्त होता है। उत्तरमेरूर ग्रामशासन सभा की पाँच उपसमितियों द्वारा होता था। इनके सदस्य अवैतनिक थे एवं उनका कार्यकाल केवल वर्ष भर का होता था। ये अपने शासन के लिए स्वतंत्र थीं एवं सम्राटादि भी उनकी कार्यवाही में हस्तक्षेप नहीं कर सकते थे।

सांस्कृतिक स्थिति : चोल साम्राज्य की शक्ति बढ़ने के साथ ही सम्राट् के गौरव ओर ऐश्वर्य के भव्य प्रदर्शन के कार्य बढ़ गए थे। राजभवन, उसमें सेवकों का प्रबंध ओर दरबार में उत्सवों और अनुष्ठानों में यह प्रवृत्ति परिलक्षित होती है। सम्राट् अपने जीवनकाल ही में युवराज को शासनप्रबन्ध में अपने साथ संबंधित कर लेता था। सम्राट के पास उसकी मौखिक आज्ञा के लिए भी विषय एक सुनिश्चित प्रणाली के द्वारा आता था, एक सुनिश्चित विधि में ही वह कार्य रूप में परिणत होता था। राजा को परामर्श देने के लिए विभिन्न प्रमुख विभागों के कर्मचारियों का एक दल, जिसे 'उडनकूट्टम्' कहते थे। सम्राट् के निरंतर संपर्क में रहता था। सम्राट् के निकट संपर्क में अधिकारियों का एक संगठित विभाग था जिसे ओलै कहते थे1 चोल साम्राज्य में नौकरशाही सुसंगठित और विकसित थी जिसमें अधिकारियों के उच्च (पेरुंदनम्) और निम्न (शिरुदनम्) दो वर्ग थे। केंद्रीय विभाग की ओर से स्थानीय अधिकारियों का निरीक्षण और नियंत्रण करने के लिए कणकाणि नाम के अधिकारी होते थेे। शासन के लिए राज्य वलनाडु अथवा मंडलम्, नाडु और कूर्रम् में विभाजित था। संपूर्ण भूमि नापी हुई थी और करदायी तथा करमुक्त भूमि में बँटी थी। करदायी भूमि के भी स्वाभाविक उत्पादनशक्ति और फसल के अनुसार, कई स्तर थे। कर के लिए संपूर्ण ग्राम उत्तरदायी था। कभी-कभी कर एकत्रित करने में कठोरता की जाती थी। भूमिकर के अतिरिक्त चुंगी, व्यवसायों और मकानों तथा विशेष अवसरों और उत्सवों पर भी कर थे। सेना अनेक सैन्य दलों में बँटी थी जिनमें से कई के विशिष्ट नामों का उल्लेख अभिलेखों में मिलता है। सेना राज्य के विभिन्न भागों में शिविर (कडगम) के रूप में फैली थी। दक्षिण-पूर्वी एशिया में चोलों की विजय उनके जहाजी बेड़े के संगठन और शक्ति का स्पष्ट प्रमाण है। न्याय के लिए गाँव और जाति की सभाओं के अतिरिक्त राज्य द्वारा स्थापित न्यायालय भी थे। निर्णय सामाजिक व्यवस्थाओं, लेखपत्र और साक्षी के प्रमाण के आधार पर होते थे। मानवीय साक्ष्यों के अभाव में दिव्यों का भी सहारा लिया जाता था।

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