दूरदर्शन पर इस महामारी काल में रामायण धारावाहिक के पुनः प्रसारण पर दो बुजुर्गों के मध्य होने वाले वार्तालाप को संवादात्मक शैली में लिखिए।
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Explanation:
एक बार अर्जुन और कृष्ण बैठे वार्तालाप कर रहे थे तथा कृष्ण अर्जुन को दानवराज बलि की दानवीरता की कथा सुना रहे थे कि कैसे बलि ने भगवान् वामन को तीन पग भूमि दान की थी। तभी अर्जुन ने पूछा कि क्या उनकी तरह दानवीर कोई और हुआ? इस पर कृष्ण ने अर्जुन को बताया कि आज पूरे विश्व में कर्ण सबसे महान दानी हैं। उन्होंने आज तक किसी याचक को खाली हाथ नहीं लौटाया। कृष्ण के मुख से कर्ण की इस प्रकार बड़ाई सुनने पर अर्जुन को बड़ी ईर्ष्या हुई। उन्होंने कृष्ण से कहा कि हे कृष्ण, हमारे बड़े भाई युधिष्ठिर ने भी आज तक किसी याचक को खाली हाथ नहीं लौटाया। प्रतिदिन सम्राट युधिष्ठिर भी प्रत्येक याचक को उसकी आवश्यकता से अधिक अन्न एवं धन से परिपूर्ण करते हैं। यही नहीं, उनके पास इतना धन है कि वे जीवन भर भी दान देते रहें तो कभी खर्च नहीं हो सकता। इन्द्रप्रस्थ के सम्राट के आगे तो कर्ण की संपत्ति कुछ भी नहीं है। फिर जब दानवीरता की बात आती है तो आप केवल कर्ण का नाम ही क्यों लेते हैं? कृष्ण मुस्कुराये और कहा कि चलो दोनों की परीक्षा ले लेते हैं। इससे तुम्हे पता चल जाएगा कि कौन वास्तव में महादानी है।
उस समय सर्वत्र बड़ी तेज बारिश हो रही थी। कृष्ण और अर्जुन ने याचक का भेष बनाया और रात्रि के समय युधिष्ठिर के पास दान माँगने पहुँचे। सम्राट युधिष्ठिर उस समय सोने जा रहे थे किन्तु जैसे ही उन्हें पता चला कि दो ब्राम्हण दान की इच्छा से द्वार पर है तो वे तुरंत बाहर आये और ब्राम्हण रुपी कृष्ण और अर्जुन का अभिवादन किया। उन्होंने पूछा कि उन्हें दान में क्या चाहिए? इसपर कृष्ण ने कहा कि उन्हें एक मन सूखी चन्दन की लकड़ियाँ चाहिए। युधिष्ठिर ने तुरंत अपने सेवकों से कहा कि यज्ञशाला से १० मन चन्दन की लकड़ी लायी जाये। इसपर कृष्ण ने कहा कि वे अशुद्ध लकड़ियाँ स्वीकार नहीं कर सकते क्यूँकि वे पहले ही यज्ञ के संकल्प हेतु काटी जा चुकी है। युधिष्ठिर हैरान हुए और उन्होंने कहा कि इस समय तो सभी जगह बारिश हो रही है। इस समय तो एक सेर भी सूखी लकड़ी मिलना असम्भव है। अगर आप चाहें तो मैं आपको एक मन चन्दन की लकड़ी की जगह एक मन स्वर्ण मुद्राएँ दे सकता हूँ। इसपर कृष्ण ने कहा कि उन्हें स्वर्ण मुद्राएँ नहीं बल्कि केवल एक मन चन्दन की सुखी लकड़ियाँ ही चाहिए। युधिष्ठिर ने हाथ जोड़ कर कहा कि "हे ब्राम्हणदेव, अभी इस समय तो सूखी लकड़ी मिलना संभव नहीं है। आप कृपया आज रात आप मेरा आथित्य स्वीकार करें। कल सुबह वर्षा रुकते ही मैं आपको १० मन चन्दन की लकड़ी उपलब्ध करवा दूँगा।" इसपर कृष्ण ने कहा कि वे सनातन ब्राम्हण है और किसी का आथित्य स्वीकार नहीं कर सकते। अब युधिष्ठिर बड़े धर्म संकट में पड़ गए। अब करें तो क्या करें? कोई और उपाय ना जानकर युधिष्ठिर ने उनके पाँव पकड़ लिए और क़तर स्वर में कहा कि इस स्थिति में वे उसे दान देने के में असमर्थ हैं अतः कृपया वे उन्हें क्षमा करें। कृष्ण ने युधिष्ठिर को व्यथित ना होने को कहा और आशीर्वाद देकर अर्जुन के साथ वहाँ से चले गए।