Hindi, asked by babitasemwal09132, 6 months ago

देश में आत्मनिर्भरता का विकास
essay likhna h hindi m....plzz quick answer....urgent...frndz...no bad comnts ​

Answers

Answered by ts693705
1

Answer:

desh mein atmanirbharta ka vikas

Explanation:

एक राजनीतिक आह्वान के बाद देश में ‘आत्म-निर्भरता’ को लेकर चर्चा छिड़ी है। चर्चा की प्रकृति ऐसी है कि जैसे ‘आत्म-निर्भरता’ कोई एकदम ताजी अवधारणा हो, और इसपर कभी किसी ने कोई प्रयास व संवाद नहीं किया है।

विज्ञापन

जबकि यह हर दौर में एक नए तरीके चर्चा में बनी रही है। राजनीतिक आह्वान से इतर देखें तो आत्मनिर्भरता कोई शिगूफा नहीं है, बल्कि बड़ी प्राचीन ‘मानव कामना’ है। मानव सभ्यता के समय से ही आत्मनिर्भरता मानव की प्रमुख कामना रही है और इस कामना की तीव्रता व उत्कटता मोक्ष से कभी कम नहीं रही है।

नीतिकारों से लेकर मानवशास्त्रियों तक सब ने इसका गुणगान किया है और एक तरफा ‘आत्म-निर्भरता’ को कष्ट का कारण माना है। सभी नर-नारी कामना करते हैं कि किसी पर निर्भर न रहें, उन्हें किसी का मोहताज न होना पड़े।

यह अलग बात है कि भौतिक जगत में ‘आत्म-निर्भरता’ की भी 'निर्भरताएं' होती हैं। जन्म के कुछ वर्ष तक मां पर निर्भरता, पिता पर निर्भरता फिर भावनात्मक रूप से पत्नी-प्रेमिका पर निर्भरता। नौकरी की तो संस्थान पर आपकी, व आपपर संस्थान की निर्भरता, उद्योग लगाया या दुकान खोली तो उसके चलने के लिए उपभोक्ताओं पर निर्भरता।

भोजन के लिए किसान पर निर्भरता, स्वास्थ्य संकटों से निदान के लिए मेडिकल संस्थान पर निर्भरता। ऐसे में यदि आप आत्म का अर्थ स्व से लेंगे तो निश्चित ही ‘आत्म-निर्भरता’ का मार्ग कठिन है। सामाजिक, शारीरिक और सांसारिक जरूरतों की कसौटी पर वैयक्तिक ( स्व की) ‘आत्म-निर्भरता’ संभव नहीं है।

हालांकि आत्म-निर्भरता वैयक्तिक आधार पर अर्थहीन भी नहीं है। एक व्यक्ति के लिए आत्मनिर्भर का मतलब है, निर्णय लेने के लिए अपने विवेक पर निर्भरता, समझने के लिए अपनी दृष्टि पर निर्भरता और मार्ग तलाशने तलाशने के लिए अपनी ही चेतना या प्रज्ञा पर निर्भरता।

वहीं व्यक्ति के लिए आत्म-निर्भरता भौतिक जरूरतों की कसौटी पर संभव भी है तो मितव्यता अपनाने व आवश्यकताओं को सीमित करने से ही, लेकिन इसका अंतिम बिंदु है अपरिग्रह। जब आपको संचय व स्वामित्व जैसे अधिकार त्यागने होंगे, जोकि प्रायोगिक रूप से संभव नहीं है। वहीं इन ‘निर्भरताओं’ के त्याग से अस्तित्व संकट आ जाएगा।

आप निर्भरता त्यागेंगे तो जो आप पर निर्भर है, उससे भी ऐसी ही अपेक्षा रखेंगे, लेकिन अस्तित्व तो ‘सह-अस्तित्व’ ही होता है। वहीं दूसरी ओर ‘आत्म-निर्भरता’ का एक पक्ष यह भी है कि ‘स्व’ के आस-आस न तो सुविधाओं की सुलभता का संजाल बनाया जा सकता है, न ही स्व-आधारित व्यवस्था इतनी व्यापक व प्रभावी हो सकती है कि उसे दूसरे इकाई की जरूरत न पड़े।

लेकिन यदि ‘आत्म’ की इकाई में प्रकृति व समाज को समवेत कर लिया जाए तो बात कुछ बन सकती है। प्रकृति का नियम और समाज की संरचना का आधार ही है परस्परता या परस्पर-निर्भरता, अंग्रेजी में आप से ‘इंटरडेपेंडेंस’ कह सकते हैं।

'परस्पर-निर्भरता' दोनों इकाइयों का औचित्य बनाए रखती है, और यह एक तरफा 'पर-निर्भरता' से अलग है। जैसे पौधें व जानवरों के बीच की परस्परता। मधुमक्खी व पुष्प की परस्पर निर्भरता। बगुला बैल के शरीर को कीट-मुक्त करता है, तो बदले में उसका पेट भी भरता है।

अबोधता में मां-बाप बच्चों का पालन करते हैं। लेकिन जब मां-बाप जब जर्जर होते हैं, उनके पाले हुए बच्चे काम आते हैं। यही परस्परता बाजार व उपभोक्ता के बीच जुड़ने की कड़ी बनती है। ‘आत्म-निर्भरता’ का ताजा विमर्श भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ही है और उसके लिए व्यक्ति को ‘परस्परता का अवलंब’ चाहिए ही होगा।

इकाई को यदि व्यक्ति के बजाए देश के रूप में रखा जाये तो, सामाजिक परस्परता देश को आत्म निर्भर बनाने में सहायक हो सकती है। देश के अंदर समाज की परस्परता, और समाज के भीतर जनों की परस्परता निष्कर्ष रूप में’ आत्म-निर्भर’ राष्ट्र दे सकती है।

अगर 'परस्पर-निर्भरता' (Interdependence) का प्रचार किया जाए और इसके लोकल मॉडल बनाए जाएं तो यह बाजार-सम्मत भी है, और समाज-सम्मत भी। लोकल-वोकल का विचार शायद इसी भावना से प्रेरित है।

हालांकि परस्परता में मितव्ययता को जोड़े बिना आत्म-निर्भरता का संकल्प पूरा नहीं होगा। क्योंकि कई ऐसी आवश्यकताएं होंगी जो पारस्परिक व्यवस्था के दायरे में पूरी नहीं हो सकेंगी, या उनका विकल्प तलाशने में कुछ समय लगेगा।

हमें कुछ समय तक संतोष करना होगा, और अपनी प्रतिबद्धता मजबूत करनी होगी, इसलिए कि हम बड़े उद्देश्य को पोषित करने जा रहे हैं। साथ ही हमें यह भी समझना है कि यह अवधारणा राजनीतिक नहीं है, बल्कि मानव सभ्यता के शिल्पियों की दी हुई है।

इसे उसी संदर्भ में लेना चाहिए, और सभी को इसमें संकल्प जताना चाहिए। परस्परता में विश्वास बढ़ाने के लिए हमें प्रकृति की व्यवस्था पर नजर डालिए, और उसी से प्रेरणा लेनी चाहिए। इससे हम पारिस्थितकी के विभिन्न घटकों की आवश्यकता व उपयोगिता को भी समझ सकेंगे व उसका सम्मान कर सकेंगे।

Similar questions