देशके दो करोड़
वेतनभोगी सड़क पर
बोलावरोजनेलो. लाखों को संक्रमित किया लेकिन करोड़ों की
सागा अध्ययन के अनुसार, लाकडाउन में दस करोड दिदी
मार रहली-रीवाले, ऑटो ड्राइवर सरीखे बेकाम हए की पावर
की भी करीब दो करोड़ लोग नौकरियां खो बैठे। ट्रेनों के परिचाल
से जामानि मेरोजी हुए लोग वापस काम पर लौटे और कुछ उचम शुरू
भीए, जिससे जून में करीब 39 लाख पगार वाली नौकरियां मिली
लेकिन उत्पादों की खपत के अभाव में जुलाई में 50 लाख लोग फिर
निकाल दिए गए। उपर मजदूर वर्ग फिर से काम पर तो लगा व कुछ
नौकरियों से वंचित लोग भी उसी अंधे में जड़े जबकि लाखों प्रवासी
मजदूर गांव में ही किस्मत आजमाने लगे। लेकिन बाढ़ ने रही सही कसर
पूरी कर दी। जून में जो प्रवासी मजदूर शहर लौटकर काम शुरू करना
चाहते थे, उनमें मायूसी है, क्योंकि कोरोना के डर से लोग बाहर न तो
निकल रहे हैं न किसी को आने देना चाहते हैं। लिहाजा ऑटो-मालिक
अपनी टैक्सी बेच कर किस्त चुका रहा है व रेहड़ी वालों के ग्राहक
नदारद है। आज दो करोड़ मजदूर या उन पर आश्रित दस करोड़ लोग
काम के बिना किसी तरह जी रहे हैं। कृषि संबंधित कार्यों में लोगों का
जुड़ना, बारिश का खेती को मदद देना तनिक उम्मीदभरा है। यह अलग
बात है कि कृषि पर श्रमिकों का भार वहन करने की क्षमता पहले से ही
कम थी और अब इनका वहां रुकना गरीबी में आटा गीला करने जैसा है।
यानी शहर में काम नहीं, गांव झेल नहीं सकता लिहाजा त्रासदी बढ़ने के
सभी आसार हैं। चूंकि यह संकट आपूर्ति में कमी से नहीं बल्कि अधिक
उत्पादन की खपत को लेकर है, लिहाजा सरकार हर कीमत पर लोगों के
हाथ में पैसाटे ताकि वे खरीदारी करें जिससे एमएसएमई सेक्टर में काम
चले. रोजगार फिर मिले और अर्थव्यवस्था की गाड़ी पटरी पर आए।
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देशके दो करोड़
वेतनभोगी सड़क पर
बोलावरोजनेलो. लाखों को संक्रमित किया लेकिन करोड़ों की
सागा अध्ययन के अनुसार, लाकडाउन में दस करोड दिदी
मार रहली-रीवाले, ऑटो ड्राइवर सरीखे बेकाम हए की पावर
की भी करीब दो करोड़ लोग नौकरियां खो बैठे। ट्रेनों के परिचाल
से जामानि मेरोजी हुए लोग वापस काम पर लौटे और कुछ उचम शुरू
भीए, जिससे जून में करीब 39 लाख पगार वाली नौकरियां मिली
लेकिन उत्पादों की खपत के अभाव में जुलाई में 50 लाख लोग फिर
निकाल दिए गए। उपर मजदूर वर्ग फिर से काम पर तो लगा व कुछ
नौकरियों से वंचित लोग भी उसी अंधे में जड़े जबकि लाखों प्रवासी
मजदूर गांव में ही किस्मत आजमाने लगे। लेकिन बाढ़ ने रही सही कसर
पूरी कर दी। जून में जो प्रवासी मजदूर शहर लौटकर काम शुरू करना
चाहते थे, उनमें मायूसी है, क्योंकि कोरोना के डर से लोग बाहर न तो
निकल रहे हैं न किसी को आने देना चाहते हैं। लिहाजा ऑटो-मालिक
अपनी टैक्सी बेच कर किस्त चुका रहा है व रेहड़ी वालों के ग्राहक
नदारद है। आज दो करोड़ मजदूर या उन पर आश्रित दस करोड़ लोग
काम के बिना किसी तरह जी रहे हैं। कृषि संबंधित कार्यों में लोगों का
जुड़ना, बारिश का खेती को मदद देना तनिक उम्मीदभरा है। यह अलग
बात है कि कृषि पर श्रमिकों का भार वहन करने की क्षमता पहले से ही
कम थी और अब इनका वहां रुकना गरीबी में आटा गीला करने जैसा है।
यानी शहर में काम नहीं, गांव झेल नहीं सकता लिहाजा त्रासदी बढ़ने के
सभी आसार हैं। चूंकि यह संकट आपूर्ति में कमी से नहीं बल्कि अधिक
उत्पादन की खपत को लेकर है, लिहाजा सरकार हर कीमत पर लोगों के
हाथ में पैसाटे ताकि वे खरीदारी करें जिससे एमएसएमई सेक्टर में काम
चले. रोजगार फिर मिले और अर्थव्यवस्था की गाड़ी पटरी पर आए।