दुष्ट की दुष्टता का क्या प्रभाव पड़ता है?
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दुष्टता के दमन की सृष्टि व्यवसथा
मनुष्य एक दर्पण की तरह है। संपर्क एवं वातावरण के प्रभाव में, प्रस्तुत ढांचे में ढलने एवं प्रचलित प्रवाह में बहने लगता है। मूलतः व्यक्ति देवी अंश अनुदान साथ लेकर जन्मता है फिर भी यदि उसे भ्रष्ट चिन्तन और दुष्ट वातावरण में रहना पड़े तो उस ढांचे में ढलते हुए भी उसे देर नहीं लगती। अनाचारी, अपराधी, दुर्गुणी, दुर्व्यसनी लोगों की बढ़ती हुई संख्या यही बताती है कि संपर्क एवं अनुकरण का प्रभाव कितना प्रचण्ड होता है। निष्कृष्ट विचारणा अपनाने वाला व्यक्ति क्रमशः पतन की दिशा में बढ़ता और नरक जैसी दुर्गन्ध भले दलदल में धँसता चला जाता है। यही बात परिस्थितियों के संबन्ध में भी है। सत्संग की महिमा सर्वविदित है, कुसंग का प्रभाव उससे भी अधिक होता है। उठने में बहुत प्रयास करने और साधन जुटाने पड़ते हैं, पर गिरने में तो इच्छा मात्र से सफलता मिल जाती है। मीनार पर चढ़ा हुआ व्यक्ति भी एक कदम आगे बढ़ाने भर से सेकेंडों में जमीन में टकराता और चूर-चूर होते देखा जाता है।
जिस प्रकार सज्जनों और महामानवों का अपना इतिहास है उसी प्रकार दुष्ट दुरात्मा भी समय-समय पर उपजते और परिस्थितियों का अनुकूलता पाकर दुष्टता के उस स्तर तक जा पहुँचते हैं जिसकी कल्पना करने तक में मनुष्यता सिहर उठती है। पौराणिक गाथाओं में कितने ही ऐसे नृशंस दैत्य दानवों का उल्लेख है जिनने मानवी परम्पराओं को ताक में रख कर ऐसे क्रूर कृत्य किये जैसे हिंस्र पशु भी करते नहीं देखे जाते। वे तभी आक्रमण करते हैं जब भूखे होते या छेड़े जाते हैं। इसके विपरीत नर-पिशाचों में ऐसे भी पाये गये हैं जो उत्पीड़न को विनोद मानते और उसका आनन्द लेने के लिए ऐसे कृत्य करते जैसे बधिक भी नहीं करते। मानवी गरिमा से ठीक विपरीत स्तर के ऐसे उदाहरणों से यही प्रतीत होता है कि भ्रष्ट चिन्तन और दुष्ट सान्निध्य से मनुष्य को न पशु बनने में देर लगती है और न पिशाच बनने में।