दादुर धुनि चहुँ दिशा सुहाई। बेद पढ़हिं जनु बटु समुदाई।।
नव पल्लव भए बिटप अनेका। साधक मन जस मिले बिबेका।।
अर्क-जवास पात बिनु भयऊ। जस सुराज खल उद्यम गयऊ।।
खोजत कतहुँ मिलइ नहिं धूरी। करइ क्रोध जिमि धरमहिं दूरी।।- अरथ लिहा
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"दादुर धुनि...धरमहिं दूरी।"
Explanation:
भावार्थ: इन पंक्तियों में कवि कहना चाहते हैं कि मेंढकों का स्वर चारों दिशाओं में अत्यधिक मधुर लगता है जैसे विद्यार्थियों एक समूह कोई वेद पढ़ रहा हो। पेड़ों पर नए पत्ते आ गए हैं जिससे वे और हरे-भरे एवं आकर्षक हो गये हैं जैसे साधना करने वाले साधु का मन ज्ञान पाकर हो जाता है।
इसके बाद कवि कहते हैं कि मदर एवं जवासा के पत्ते झड़ गये हैं उसी प्रकार जैसे एक अच्छे राज्य में बुरे लोगों का उद्यम किसी कार्य योग्य नहीं होता। फिर कवि कहते हैं कि जिस प्रकार धूल ढूंढ़ने पर भी नहीं प्राप्त होती वैसे ही क्रोध अथवा तामस धर्म के ज्ञान को नष्ट कर देता है।
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