दैव! दैव!आलसी पुकारा भाव पल्लवन कीजिए
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kiya???????????????????????
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आलसी ही दैव (भाग्य) का सहारा लेता है – भाग्य आलसियों के सहारे जीवित रहता है | जो लोग परिश्रम करने में मन चुराते हैं, वही भाग्य का दामन थामने हैं | परिशमी लोग अपना भाग्य स्वयं बनाते हैं | वे कठोर परिश्रमकरके पाने लिए रोटी, कपड़ा, मकान जुटा लेतें हैं | जबकि आलसी लोग कहते हैं – ‘क्या करें’, हमारी किस्मत में यही बदा था | ’एक प्रसिद्ध कथन है – ‘समय से पहले और भाग्य से अधिक किसी को नहीं मिलता |’ आलसी लोग इस उक्ति का सहारा लेकर बैठ जाते हैं | वे कहते हैं – जब समय आयेगा, भाग्य जागेगा तो साडी चीज़ें अपने-आप मिल जाएँगी | इसलिए वे भूलकर भी परिशाम नहीं करते |
भाग्यवादी निकम्मा होता है – भाग्य के भरोसे बैठे रहने वाला व्यक्ति निकम्मा होता है | वह हाथ पर हाथ रखकर बैठ जाता है | उसे भ्रम रहता है कि जो कुछ होगा, किसी और शक्ति के चाहने पर होगा | उसके करने से कुछ नहीं हो सकता | अत: भाग्यवान उसे निकम्मा बना देता है |
विघ्न-बाधायों से डरता है, उसका मुकाबला करने से बचता है – वास्तव में उसे कठोर परिश्रम करने में डर लगता है | भूखा होने पर भी वः सोचता है कि पेड़ पर चढ़कर फल कौन तोड़े, फावड़ा उठाकर मिट्टी कौन खोदे, कौन दिन-भर रेहड़ी पर संतरे बेचता फिरे ! उसकी यही सोच उसे निकम्मा बना देती है | यही सोच उसे मुसीबतों का मुकाबला करने से रोकती है | यदि मनुष्य यह सोच ले कि परिश्रम करने से मुझे रोटी अवश्य मिलेगी, तो वह हँसते-हँसते फावड़ा चला लेगा, खुसी से पेड़ पर चढ़ जाएगा, उत्साह-पृवक दिन-भर संतरे बेच लेगा और विशाल ज्ञान-राशि को रचा-पचा जाएगा |
निराश, उदासीन और पराश्रित रहता है – भाग्यवादी का दुभाग्य यह है कि वह हमेशा निराश, उदासीन और पराश्रित रहता है | उसे कर्म करने के उत्साह का अनुभव नहीं होता | उसे अपने परिश्रम के प्राप्त फल का सुख नहीं मिल पाता | उसके जीवन में कोई आशा अंकुरित नहीं हो पाती | इसलिए वः सदा भूखा-नंगा, गरीब, निराश और उदासीन रहता है | भूख के मारे उसे औरों से माँगने की आदत पड़ जाती है | इसलिए वह पराश्रित हो जाता है |
परिश्रम सौभाग्य का निर्माता है – सौभाग्य का वास्तविक आधार है – परिश्रम | परिश्रमी व्यक्ति अपना सोया भाग्य जगाकर सौभाग्यशाली बन जाते हैं | वास्तव में संसार में जितने भी निर्माण हुए हैं, वे परिश्रम की ही कहानी कहते हैं | जितनी फसलें उगती हैं, जितने वस्त्र-आभूषण बनते हैं, जितने भवन उद्योग बनते हैं, सब परिश्रम से ही बनते हैं | अत: परिश्रम सौभाग्य का जनक है और आलस्य दुभार्ग्य का | इसलिए कहा गया है –
जो सोया है, वह कलियुग है |
जो बैठ गया, वह द्वापर है |
जो खड़ा हो गया, त्रेता है |
जो चल पड़ा, वह सतयुग है |
अत: ‘चरैवैति चरैवैति’| चलते रहो, चलते रहो |