दैवीय सिद्धान्त राज्य के क्या कर्त्तव्य बताता है?
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काण्टीय नीतिशास्त्र का सन्दर्भ एक कर्तव्यवैज्ञानिक नीतिशास्त्रीय सिद्धान्त से हैं, जिसका सम्बन्ध जर्मन दार्शनिक इमानुएल काण्ट से हैं। जिसको जर्मन दार्शनिक इमानुएल काण्ट ने प्रस्तुत किया था। यह सिद्धांत यूरोपीय ज्ञानोदय युग ( 18 वी सदी) के परिणाम स्वरुप विकसित हुआ था, यह इस दृष्टिकोण पर आधारित है कि आंतरिक रूप से एक शुभ संकल्प ही शुभ कार्य है;एक कार्य केवल तभी शुभ हो सकता है यदि उसके पीछ सिद्धांत हो- कि नैतिक नियमो का पालन एक कर्तव्य कि तरह किया जाये। कांट के नैतिक नियमो की संरचना का केंद्र बिंदु निरपवाद कर्तव्यादेश (categorical imperative) है जो कि सभी मनुष्यो पर सामान रूप से लागू होता है उनके हितो और इच्छाओ पर ध्यान दिए बिना। कांट ने निरपवाद कर्तव्यादेशो को विभिन्न तरीको से सूत्रबद्ध किया है। उनके सर्वभौमिकता के सिद्धांत क़े अनुसार, कोई भी कृत्य तभी अनुज्ञेय है जब कि बिना किसी विरोधाभास क़े सभी लोगो द्वारा इसे लागू किया जाना संभव हो सके। अगर विरोधाभास उत्पन होता है तो यह अरस्तु की गैर-विरोधाभास की अवधरणा के नियम का उललंघन करेगा जो यह निर्धारित करती है की उचित कार्य विरोधाभास का कारण नहीं बन सकते है।[1] कांट का मानवता का सूत्रबद्धीकरण निरपवाद कर्तव्यादेशो का दूसरा खंड (अंश) है जो बताता हैं कि अपने प्रयोजन के लिए मनुष्यो को कभी दूसरो को केवल साधन साधने मात्र के लिए व्यवहार नहीं करना चाहिए परन्तु जैसा वह स्वयं के प्रति चाहते है वैसा ही दुसरो के प्रति करना चाहिए।[2] स्वायत्तता का सूत्रीकारण निष्कर्ष निकलता है कि तर्कसंगत (बौद्धिक) कारक नैतिक नियमो से अपनी इच्छानुसार बंधे हुए होते है जबकि अंत का साम्राज्य( किंगडम ऑफ़ एंड्स) मे कांट की संकल्पना है है-लोग वैसा व्यवहार करते है जैसे की उनके कार्यो के सिद्धांत विधि द्वारा किसी कल्पित साम्राज्य(hypothetical kingdom) के लिए स्थापित कर दिये गए हो। कांट ने पूर्ण कर्तव्यो और अपर्ण कर्तव्यों (pefect duties & imperfect duties) मे भेद भी किया है। एक पूर्ण कर्तव्य है जैसे कि कभी झूठ न बोलने का कर्त्तव्य, हमेशा सच को धारण करे रखना; एक अपूर्ण कर्त्तव्य है जैसे की दान करने का कर्त्तव्य जिसे किसी विशेष समय और स्थान के अनुसार लागू किया जा सकता है।