दियासलाई माचिस को कहते हैं
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इतिहास
बर्थोले ने पहले पहल आग उत्पन्न करने के लिए पोटासियम क्लोरेट और सलफ्यूरिक अम्ल का उपयोग किया था। पोटासियम क्लारेट चीनी और गोंद में मिलाकर लकड़ी की शलाका के एक सिरे पर लगा होता था। उसे सलफ्यूरिक अम्ल में डुबाने से शलाका जल उठती थी। फॉस्फोरस के आविष्कार के बाद घर्षण दियासलाई का आविष्कार इंग्लैंड के जॉन वाकर द्वारा 1826 ई. में हुआ। लकड़ी की शलाका के सिरे पर एंटिमनी सल्फाइड, पोटासियम क्लोरेट, बबूल का गोंद या स्टार्च लगे रहते थे। उसे रेगमाल पर रगड़ने से मसाला जल उठता था, उससे चिनगारियाँ छिटकतीं और छोटे-छोटे विस्फोट होते थे। गंधक के जलने के कारण गंध बड़ी अरुचिकर होती थी। सन 1832 में फ्रांस में ऐंटीमनी सल्फाइड के स्थान में फॉस्फोरस का प्रयोग शुरू हुआ। इससे गंधक की अरुचिकर गंध तो जाती रही पर फॉस्फोरस के जलने से बना धुआँ बहुत विषैला सिद्ध हुआ और ऐसे कारखानों में काम करने वाले श्रमिकों में परिगलन रोग फैलने लगा और अनेक लोग मरने लगे। पीत फॉस्फोरस का उपयोग आज क़ानून से वर्जित है। पीत फॉस्फोरस के स्थान पर अब अविषाक्त फॉस्फोरस सेस्क्किसल्फाइड का प्रयोग शुरू हुआ। फिर लाल या अक्रिस्टला फॉस्फोरस का पता लगा, जो बिलकुल विषैला नहीं होता। फिर फॉस्फोरस के स्थान पर बहुत दिनों तक इसी का उपयोग दियासलाई बनाने में होता रहा। ऐसी दियासलाई किसी रुखड़े तल पर रगड़ने से जल उठती है। इसके बाद निरापद दियासलाई का आविष्कार हुआ। इसमें कुछ मसाले शलाका के सिरे पर रहते हैं और कुछ मसाले बक्स पर रहते हैं। इससे दियासलाई केवल बक्स के तल पर रगड़ने से जलती है, अन्यथा नहीं।