'दहेज : एक सामाजिक अभिशाप' शीर्षक पर लगभग 100-150 शब्दों में अनुच्छेद लिखिय।
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भारतीय समाज में अनेक प्रथाएं प्रचलित हें । पहले इस प्रथा के प्रचलन में भेंट स्वरूप बेटी को उसके विवाह पर उपहारस्वरूप कुछ दिया जाता था परन्तु आज दहेज प्रथा एक बुराई का रूप धारण करती जा रही है । दहेज के अभाव में योग्य कन्याएं अयोग्य वरों को सौंप दी जाती हैं । लोग धन देकर लड़कियों को खरीद लेते हैं । ऐसी स्थिति में पारिवारिक जीवन सुखद नहीं बन पाता । गरीब परिवार के माता-पिता अपनी बेटियों का विवाह नहीं कर पाते क्योंकि समाज के दहेज-लोभी व्यक्ति उसी लड़की से विवाह करना पसंद करते हैं जो अधिक दहेज लेकर आती हैं ।
हमारे देश में दहेज प्रथा एक ऐसा सामाजिक अभिशाप है जो महिलाओं के साथ होने वाले अपराधों, चाहे वे मानसिक हों या फिर शारीरिक, को बढावा देता है. इस व्यवस्था ने समाज के सभी वर्गों को अपनी चपेट में ले लिया है. अमीर और संपन्न परिवार जिस प्रथा का अनुसरण अपनी सामाजिक और पारिवारिक प्रतिष्ठा दिखाने के लिए करते हैं वहीं निर्धन अभिभावकों के लिए बेटी के विवाह में दहेज देना उनके लिए विवशता बन जाता है. क्योंकि वे जानते हैं कि अगर दहेज ना दिया गया तो यह उनके मान-सम्मान को तो समाप्त करेगा ही साथ ही बेटी को बिना दहेज के विदा किया तो ससुराल में उसका जीना तक दूभर बन जाएगा. संपन्न परिवार बेटी के विवाह में किए गए व्यय को अपने लिए एक निवेश मानते हैं. उन्हें लगता है कि बहूमूल्य उपहारों के साथ बेटी को विदा करेंगे तो यह सीधा उनकी अपनी प्रतिष्ठा को बढ़ाएगा. इसके अलावा उनकी बेटी को भी ससुराल में सम्मान और प्रेम मिलेगा |
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दहेज : एक अभिशाप पर निबंध | Essay on Dowry : A Curse in Hindi!
यूँ तो मानव समाज एवं सभ्यता के समक्ष कई सारी चुनौतियाँ मुँह बाए खड़ी हैं, परंतु इनमें से एक चुनौती ऐसी है, जिसका कोई भी तोड़ अभी तक समर्थ होता नहीं दिख रहा है । कहना नहीं होगा कि विवाह संस्कार से जुड़ी हुई यह सामाजिक विकृति दहेज प्रथा ही है । दहेज कुप्रथा भारतीय समाज के लिए एक भयंकर अभिशाप की तरह है । हमारी सभ्यता एवं संस्कृति का यह एक बड़ा कलंक है । ‘ दहेज ‘ शब्द अरबी भाषा के ‘ जहेज ‘ शब्द से रूपान्तरित होकर उर्दू और हिन्दी में आया है जिसका अर्थ होता है ‘ सौगात ‘ । इस भेंट या सौगात की परम्परा भारत में कब से प्रचलित हुई, यह विकासवाद की खोज के साथ जुड़ा हुआ तथ्य है ।
प्राचीन आर्य ग्रन्थों के अनुसार, अग्निकुंड के समक्ष शास्त्रज्ञ विद्वान विवाह सम्पन्न कराता था तथा कन्या का हाथ वर के हाथ में देता था । कन्या के माता-पिता अपनी सामर्थ्य और शक्ति के अनुरूप कन्या के प्रति अपने स्नेह और वात्सल्य के प्रतीक के रूप में कुछ उपहार भेंट स्वरूप दिया करते थे । इस भेंट में कुछ वस्त्र, गहने तथा अन्न आदि होते थे । इसके लिए ‘ वस्त्रभूषणालंकृताम् ‘ शब्द का प्रयोग सार्थक रूप में प्रचलित था । इन वस्तुओं के अतिरिक्त दैनिक जीवन में काम आने वाली कुछ अन्य आवश्यक वस्तुएँ भी उपहार के रूप में दी जाती थीं । उपहार की यह प्रथा कालिदास के काल में भी थी ।
स्नेह, वात्सल्य और सद्भावनाओं पर आधारित यह प्रतीक युग में परिवर्तन के साथ-साथ स्वयं में परिवर्तित होता गया । स्नेहोपहार की यह भावना कालक्रम में अत्यन्त विकृत होती चली गयी । मध्य युग में वस्त्र, रत्न, आभूषण, हाथी, घोड़े तथा राज्य का कोई भाग – यहाँ तक कि दास-दासियाँ भी दहेज में देने की प्रथा चल पड़ी ।
आधुनिक दहेज प्रथा मूलत: धनी लोगों की देन है, जिसकी चक्की में निर्धन भी पिस रहे हैं । इस प्रथा के पीछे लाभ की दुष्प्रवृत्ति छिपी हुई है । आज दहेज प्रथा भारत के सभी क्षेत्रों और वर्गों में व्याप्त है । इस कुप्रथा ने लड़कियों के पिता का जीवन दूभर कर दिया है । लड़के के पिता अपने लड़के का कथित सौदा करने लगे हैं । यह घोर नीतिक पतन नहीं तो और क्या है? इस कुप्रथा के चलते कितने लड़की वाले बेघर एवं बर्बाद हो रहे हैं । कितनी ही विवश कन्याओं को आत्महत्या जैसा कुकर्म करना पड़ रहा है । कितनी वधुएं दहेज की खातिर जीवित जला कर मारी जा रही हैं ।
गाँधी भारत की राजनीतिक स्वतंत्रता के साथ-साथ आर्थिक, नैतिक और सामाजिक स्वतंत्रता के भी हिमायती थे । उन्होंने दहेज प्रथा की कूरता और भयावहता से क्षुब्ध होकर कहा था – ” दहेज की पातकी प्रथा के खिलाफ जबरदस्त लोकमत बनाया जाना चाहिए और जो नवयुवक इस प्रकार गलत ढंग से लिए गए धन से अपने हाथों को अपवित्र करे उसे जाति से बहिष्कृत कर देना चाहिए ।” आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द ने भी इस राष्ट्रीय कलंक की ओर जनता का ध्यान आकृष्ट किया । पं. जवाहर लाल नेहरू ने इस दहेज दानव के विनाश के लिए जनता का उद्बोधन किया । इन्हीं के प्रधानमंत्रित्वकाल में सन् 1961 ई. में ‘ दहेज निरोधक अधिनियम ‘ बनाया गया, किन्तु जनता के समर्थन अभाव में यह कानून की पुस्तकों की ही शोभा बनकर रह गया । यह कुप्रथा कानून बना देने मात्र से ही समाप्त नहीं हो सकती । इस सामाजिक कोढू से तभी मुक्ति मिल सकती है जब युवा वर्ग इस ओर अग्रसर हो । दहेज जैसी कुरीति को दूर करने के लिए देश के युवा वर्ग को आगे आना ही होगा ।
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