Hindi, asked by pranaysennarapu71, 5 months ago

दहेज प्रथा को दूर करने के क्या उपाय है।
पष्ट से लिखिए।​

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Answered by Anonymous
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इंसान जब लालच की गहरी खाई में गौते लगाता है, तो वह इंसानियत को रौंदते हुए शैतान की भाषा बोलने लगता है। ‘दहेज प्रथा’ इसी का एक अप्रितम उदाहरण है।

दहेज प्रथा का इतिहास तो काफी पुराना है मगर मौजूदा वक्त में यह एक खतरनानक बिमारी का रूप ले चुकी है। अब तक हमारे समाज में ना जाने कितने घरों को इसने बर्बाद कर दिया है।

समाज के तमाम बुद्धिजीवी वर्ग आज दहेज प्रथा को बढ़ावा दे रहे हैं। भारत के किसी भी वर्ग के परिवार में आपको इसका नज़ारा मिल ही जाएगा। खासतौर पर समृद्ध परिवारों में दहेज लेने की अधिक होड़ लगी रहती है।

समाज दोषी या सरकार?

सरकारें कानून बनाकर सो गईं मगर आज देखने वाला कोई नहीं है कि मौजूदा वक्त में ज़मीनी स्तर पर क्या हालात हैं। सरकार जितना कुछ कर रही है, वह सब सिर्फ ऊंट के मुंह में जीरा जितना है। ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा कि इन चीज़ों से दहेज प्रथा जैसी बिमारी को खत्म नहीं किया जा सकता है।

लगभग सभी सरकारी नुमाइंदे भी इस दहेज के सागर में डुबकी मार ही लेते हैं। मेरे गाँव का उदाहरण दूं तो अधिकतर लोग इसलिए सरकारी नौकरी चाहते हैं, ताकि उन्हें शानदार दहेज मिले।

अब इसका प्रभाव गाँवों, शहरों और महानगरों में भी दिखने लगा है। लोग यह समझना ही नहीं चाह रहे हैं कि दहेज लेना और देना दोनों ही गुनाह है। भारतीय दंड संहिता भी अपराधी का सहयोग करने वाले को अपराधी मानती है।

जब पाश्चत्य संस्कृति की बात आती है, तो हम अंग्रेज़ों को कोसते हुए कहते हैं कि उन्होंने हमारी सभ्यताओं को बिगाड़ दिया है लेकिन हम उनकी अच्छाईयों का ज़िक्र करना ही नहीं चाहते हैं। हम यह तो नहीं कहते हैं कि अंग्रेज़ क्यों नहीं दहेज लेते थे।

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एक पिता बहुत लाड़-प्यार से अपनी बेटी को पढ़ाता है, फिर उसके लिए अच्छे वर की तलाश करता है। सब सेट हो जाता है लेकिन बात अटकती है दहेज पर, वर पक्ष इसके लिए अनेकों रिश्तेदारों और पड़ोसियों के उदाहरण देते हुए कहता है कि फलां घर से इतने पैसे दिए जा रहे हैं, हम तो कुछ नहीं मांग रहे हैं।

वास्तव में यह सब अप्रत्यक्ष रूप से मांग ही होती है और अगर निश्चित राशि नहीं मिलती है, तो बारात के वक्त पता नहीं क्या-क्या नाटक खेले जाते हैं। अगर वहां भी छुटकारा मिल जाए तो आगे ससुराल में लड़की को सताया जाता है, ताने दिए जाते हैं और कभी-कभी तो जान तक ले ली जाती है।

क्या सचमुच यही हमारे मूल्य हैं, जिस संस्कृति का ढोल हम सारे संसार में पिटते हैं, वो क्या यह सिखाती है कि किसी अन्य परिवार की बेटी को हद की सारी बंदिशें तोड़ते हुए सिर्फ सताओ।

हम क्यों भूल जाते हैं कि हमारी बेटियां भी शादी के बाद किसी और के घर जाएंगी। क्या उस वक्त हमारा खून नहीं खौलेगा जब कोई उसे भी उसी लालच में यातनाएं देगा।

हर कोई अपनी बेटी की बेहतरीन शादी करना चाहता है मगर मजबूरी ही तो होती होगी जो वह आपकी सारी मांगे पूरी नहीं कर पाता, पता नहीं दहेज़ लेने वालों पर उस वक्त कौन सा भूत सवार हो जाता है।

उपहार को दहेज बना दिया गया

अब जब इसे खत्म करने की बात आती है, तो मैं अपनी लेखनी के ज़रिये बताना चाहता हूं कि यह लोभी समाज दहेज प्रथा को कभी भी समाप्त नहीं करना चाहेगा। लोग तो बस यह सोचते हैं कि अपनी बेटी की शादी में दहेज दिया था तो अब बेटे की शादी में लेने की बारी है।

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार: pixabay

आज का युवा जो यह पढ़ने की काबिलियत रखता है, जो त्याग की भावना को समझता है, जिसको हमारे देश का भविष्य माना जाता है और जो सारे दिन इंटरनेट पर पोस्ट ठोकता रहता है, शायद वो यह बात समझ सकता है।

सुनो, इससे पहले कि यह और निर्दोषों की जान का दुश्मन बने, सिर्फ यह सोचो कि क्या आप अपनी बहनों और बेटियों के साथ यह सब होने देना चाहते हैं? अगर आपका जवाब ना है, तो वह भी किसी की बहन और किसी की बेटी ही होती है, इस चीज को जल्द समझ जाने से भलाई है।

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