दर्शन शास्त्र के जनक कौन है
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दर्शनशास्त्र के अध्ययन, चिंतन तथा विश्लेषण (Analysis) की विषय वस्तु अत्यंत व्यापक होने के कारण, दर्शनशास्त्र का कोई सर्व स्वीकार्य परिभाषा निश्चित कर पाना अत्यंत कठिन कार्य है।
मूर्त (Abstract) तथा अमूर्त (Concrete) विषयों के संबंध में मनुष्य की बुद्धि में उत्पन्न होने वाले विविध प्रश्नों तथा उनका युक्तियुक्त (Reasonable) समाधान /उत्तर प्राप्त करने का प्रयास दर्शन कहा जा सकता है।
इस तरह से संपूर्ण ब्रम्हाण्ड ही दर्शन का विषय हो जाता है।
अरस्तु ने मनुष्य को विवेकशील प्राणी कहा है।
विवेकवान होने का मनुष्य का यह अदितीय गुण विश्व की प्रत्येक वस्तु के स्वरूप को जानने के लिए मनुष्य को प्रेरित करता है।
वस्तु के स्वरूप को पूर्णंता के साथ व्याख्या कर पाने के लिए, भावना अथवा विश्वास के आधार पर नहीं बल्कि ज्ञान के आधार पर इसे प्रकट किया जाता है।
दर्शन, ज्ञान की युक्तियुक्तता की कसौटी होती है।
दर्शन के अधीन समस्त ब्रम्हाण्ड, जीवन, आत्मा, व्यक्ति, वस्तु प्रत्येक की उत्पत्ति, अस्तित्व, प्रयोजन स्वरूप, लक्ष्य, सीमाओं आदि से संबंधित प्रश्न जो मनुष्य के मस्तिष्क में उठते हैं, उनका युक्तियुक्त समाधान/उत्तर देने का प्रयास किया जाता है।
कुछ सामान्य प्रश्न जो प्रत्येक मनुष्य के मस्तिष्क में उठते हैं यथा - ब्रम्हाण्ड का स्वरूप कैसा है ? इसकी उत्पत्ति क्यों और किस प्रकार हुई ? क्या ब्रम्हाण्ड की उत्पत्ति का कोई प्रयोजन है ? क्या ब्रम्हाण्ड में ईश्वर का अस्तित्व है ? आत्मा क्या है ? ज्ञान क्या है ? सत्य क्या है ? नैतिक-अनैतिक क्या है ? इत्यादि अनेक प्रश्नों के संबंध में प्रत्येक व्यक्ति के मस्तिष्क में विचार उत्पन्न होते हैं, जिनके आधार पर एक धारणा का निर्माण होता हैं। इन धारणाओं के युक्तियुक्तता ही दर्शन का निर्माण करती है।