Hindi, asked by priyapoonia1402, 2 months ago

दद्विानो केललए वनम्नललखखत कथनो मेसेक्रीया कथन सत्रीय हिै? क) लोगो मेखुलशरीयांबांटतेहिैं। ख)लोगो मेरन बांटतेहिैं। ग) रमर्धका प्रचार करतेहिैं। घ) लोगो सेरन मांगतेहिैं।

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ध्वन्यालोक, आचार्य आनन्दवर्धन कृत काव्यशास्त्र का ग्रन्थ है। आचार्य आनन्दवर्धन काव्यशास्त्र में 'ध्वनि सम्प्रदाय' के प्रवर्तक के रूप में प्रसिद्ध हैं।

आनन्दवर्धन का ध्वन्यालोक

ध्वन्यालोक उद्योतों में विभक्त है। इसमें कुल चार उद्योत हैं।इस के मंगलाचरण में भगवान विष्णू की स्थुती की गयी है प्रथम उद्योत में ध्वनि सिद्धान्त के विरोधी सिद्धांतों का खण्डन करके ध्वनि-सिद्धांत की स्थापना की गयी है। द्वितीय उद्योत में लक्षणामूला (अविवक्षितवाच्य) और अभिधामूला (विवक्षितवाच्य) के भेदों और उपभेदों पर विचार किया गया है। इसके अतिरिक्त गुणों पर भी प्रकाश डाला गया है। तृतीय उद्योत पदों, वाक्यों, पदांशों, रचना आदि द्वारा ध्वनि को प्रकाशित करता है और रस के विरोधी और विरोधरहित उपादानों को भी। चतुर्थ उद्योत में ध्वनि और गुणीभूत व्यंग्य के प्रयोग से काव्य में चमत्कार की उत्पत्ति को प्रकाशित किया गया है।

ध्वन्यालोक के तीन भाग हैं- कारिका भाग, उस पर वृत्ति और उदाहरण। कुछ विद्वानों के अनुसार कारिका भाग के निर्माता आचार्य सहृदय हैं और वृत्तिभाग के आचार्य आनन्दवर्धन। ऐसे विद्वान अपने उक्तमत के समर्थन में ध्वन्यालोक के अन्तिम श्लोक को आधार मानते हैं-

सत्काव्यतत्त्वनयवर्त्मचिरप्रसुप्तकल्पं मनस्सु परिपक्वधियां यदासीत्।

तद्व्याकरोत् सहृदयलाभ हेतोरानन्दवर्धन इति प्रथिताभिधानः॥

लेकिन कुंतक, महिमभट्ट, क्षेमेन्द्र आदि आचार्यों के अनुसार कारिका भाग और वृत्ति भाग दोनों के प्रणेता आचार्य आनन्दवर्धन ही हैं। आचार्य आनन्दवर्धन भी स्वयं लिखते हैं-

इति काव्यार्थविवेको योऽयं चेतश्चमत्कृतिविधायी।

सूरिभिरनुसृतसारैरस्मदुपज्ञो न विस्मार्यः॥

यहाँ उन्होंने अपने को ध्वनि सिद्धान्त का प्रवर्तक बताया है। इसके पहले वाले श्लोक में प्रयुक्त ‘सहृदय’ शब्द किसी व्यक्तिविशेष का नाम नहीं, बल्कि सहृदय लोगों का वाचक है और कारिका तथा वृत्ति, दोनों भागों के रचयिता आचार्य आनन्दवर्धन को ही मानना चाहिए।

इस अनुपम ग्रंथ पर दो टीकाएँ लिखी गयीं- ‘चन्द्रिका’ और ‘लोचन’। हालाँकि केवल ‘लोचन’ टीका ही आज उपलब्ध है। जिसके लिखने वाले आचार्य अभिनव गुप्तपाद हैं। ‘चन्द्रिका’ टीका का उल्लेख इन्होंने ही किया है और उसका खण्डन भी किया है। इसी उल्लेख से पता चलता है कि‘चंद्रिका’ टीका के टीकाकार भी आचार्य अभिनवगुप्तपाद के पूर्वज थे।

आनन्दवर्धन– सहृदय हृदयहलादि शब्दार्थमयत्वमेय काव्यलक्षणम्

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