धीरे-धीरे उतर क्षितिज से कविता का सारांश
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धीरे-धीरे उतर क्षितिज से कविता का सारांश
‘धीरे-धीरे उतर क्षितिज से’ कवयित्री ‘महादेवी वर्मा’ द्वारा रचित एक कविता है। कविता में कवयित्री ने वसंत ऋतु की रात का वर्णन किया है। उन्होंने वसंत ऋतु का मानवीकरण किया है और इस धरती पर उसका आह्वान किया है।
कवयित्री महादेवी वर्मा बसंत रूपी रजनी से आग्रह करते हुए कहते हैं कि इस अपनी चोटी में नवीन तारों को गूंध लो और अपने सर पर चंद्रमा को फूल की तरह धारण कर लो, फिर तुम भी धरती पर पधारो। तुम चंद्रमा की किरणों के कंगन पहन लो और अपने सर पर सफेद बादलों का घूंघट डाल लो, फिर अपनी धरती पर पधारो। तुम अपने नैनो से धरती सुंदर मोती बिखेर दो। तुम सबके मन को हर्षित एवं पुलकित कर दो।
कवयित्री बसंत रजनी का आह्वान करते हुए कहती हैं कि पत्तों की की मर्मर ध्वनि तुम्हारे घुंघुरुओं की मधुर ध्वनि के जैसी लग रही है। भौंरे के गुंजन तुम्हारी कमर में किंकिणी की ध्वनि का आभास दे रहे हैं। तुम धरती पर धवल चांदी की धारा प्रवाहित करती हुई अपनी मीठी मुस्कान के बिखेरती हुई आओ। तुम नई-नवेली दुल्हन की तरह शर्माती हुई, सकुचाती हुई आओ।
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Dheere Dheere Utar Kshitij ka Nayika Ne kis Prakar Prakriti Ka Singar Kiya Hai