धर्म की आड पाठ का आशय लाखो please write answer
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धर्म की आड़' पाठ में निहित संदेश यह है कि सबसे पहले हमें धर्म क्या है, यह समझना चाहिए। पूजा-पाठ, नमाज़ के बाद दुराचार करना किसी भी रूप में धर्म नहीं है। अपने स्वार्थ के लिए लोगों को गुमराह कर शोषण करना और धर्म के नाम पर दंगे फसाद करवाना धर्म नहीं है। सदाचार और शुद्ध आचरण ही धर्म है, यह समझना चाहिए। mark as branliest
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प्रस्तुत पाठ ‘धर्म की आड़’ में लेखक ने उन लोगों के इरादों और कुटिल चालों को बेनकाब किया है, जो धर्म की आड़ लेकर जनसामान्य को आपस में लड़ाकर अपना स्वार्थ सिद्ध करने की फिराक में रहते हैं। धर्म की आड़ में अपना स्वार्थ सिद्ध करने वाले हमारे ही देश में हों, ऐसा नहीं है। लेखक ने इस पाठ में दूर देशों में भी धर्म की आड़ में कैसे-कैसे कुकर्म हुए हैं, कैसी-कैसी अनीतियाँ हुई हैं, कौन-कौन लोग, वर्ग और समाज उनके शिकार हुए हैं, इसका खुलासा करते चलते हैं।
Explanation:
व्याख्या - लेखक कहता है कि धर्म और सच्चाई की बुराइयों से काम लेना इसलिए आसान है क्योंकि हमारे देश के साधारण से साधारण आदमी तक के दिल में यह बात अच्छी तरह बैठी हुई है कि धर्म और सच्चाई की रक्षा के लिए प्राण तक दे देना बिलकुल सही है। बेचारा साधारण आदमी धर्म के तत्त्वों को क्या जाने? किस्मत के सहारे चलते रहना ही वह अपना धर्म समझता है। साधारण लोगों की इस अवस्था से चालाक लोग इस समय उन साधारण लोगों का बहुत गलत फ़ायदा उठा रहे हैं। लेखक कहता है कि पाश्चात्य देशों में, धनी लोगों की, गरीब मज़दूरों की झोंपड़ी का मज़ाक उड़ाते ऊँचे-ऊँचे मकान आकाश से बातें करते हैं! गरीबों की कमाई ही से वे अमीर से अमीर होते जा रहे हैं, और उन ग़रीब मजदूरों के बल से ही वे हमेशा इस बात का प्रयास करते हैं कि गरीब सदा चूसे जाते रहें। ताकि वे हमेशा अमीर बने रहें। लेखक कहता है कि यह एक भयंकर अवस्था है। इसी के कारण, साम्यवाद, बोल्शेविज़्म आदि का जन्म हुआ।
हमारे देश में, इस समय, धनपतियों का इतना शोर नहीं है। यहाँ, धर्म के नाम पर, कुछ इने-गिने आदमी अपने हीन स्वार्थों की सिद्धि के लिए, करोड़ों आदमियों
की शक्ति का दुरुपयोग किया करते हैं। गरीबों का धनाढ्यों द्वारा चूसा जाना इतना बुरा नहीं है, जितना बुरा यह है कि वहाँ है धन की मार, यहाँ है बुद्धि पर मार। वहाँ धन दिखाकर करोड़ों को वश में किया जाता है, और फिर मन-माना धन पैदा करने के लिए जोत दिया जाता है। यहाँ है बुद्धि पर परदा डालकर पहले ईश्वर और आत्मा का स्थान अपने लिए लेना, और फिर, धर्म, ईमान, ईश्वर और आत्मा के नाम पर अपनी स्वार्थ-सिद्धि के लिए लोगों को लड़ाना-भिड़ाना।
मूर्ख बेचारे धर्म की दुहाइयाँ देते और दीन-दीन चिल्लाते हैं, अपने प्राणों की बाजियाँ खेलते और थोडे़-से अनियंत्रित और धूर्त आदमियों का आसन ऊँचा करते और उनका बल बढ़ाते हैं। धर्म और ईमान के नाम पर किए जाने वाले इस भीषण व्यापार को रोकने के लिए, साहस और दृढ़ता के साथ, उद्योग होना चाहिए। जब तक ऐसा नहीं होगा, तब तक भारतवर्ष में नित्य-प्रति बढ़ते जाने वाले झगडे़ कम न होंगे।
शब्दार्थ -
धनाढ्य - धनवान
स्वार्थ सिद्धि - अपना स्वार्थ सिद्ध करना
अनियंत्रित - जो नियंत्राण में न हो, मनमाना
धूर्त - छली, पाखंड