धर्म और राजनीति पर भाषण
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भारत में कई ऐसे महापुरुष हुए हैं, जिनमें महात्मा बुद्ध, महावीर स्वामी तथा महात्मा गांधी आदि धर्म व् राजनीति के संगम रहे हैं. एक तरह ये लोग धर्म से जुड़े हुए थे, दूसरी तरह सताधारी पक्ष को गलत राहों के प्रति अपना विरोध जताकर, मानवीय मूल्यों तथा सिद्धांत का प्रचार-प्रचार कर समाज को हर राह पर लाने का प्रयास किया. दूसरे शब्दों में यदि राजनीति शरीर हैं तो उसमें व्याप्त आत्मा धर्म ही हैं, दोनों को पृथक किया जाना संभव नही हैं.
किसी भी राष्ट्र अथवा राज्य की राजनीति का स्वरूप व चरित्र वहां की सामाजिक, भौगोलिक तथा धार्मिक परिस्थतियों के अनुसार गढ़ा जाता हैं. यही वजह हैं कि भारत जैसे देश में लोग धर्म प्रिय हैं इसी कारण हर तरह के चुनावों में धर्म के नाम पर वोट भी मांगे जाते हैं. वही अमेरिका जैसे पश्चिम देशों की राजनीति में धर्म का राजनीति पर ना के बराबर प्रभाव पड़ता हैं.
भारतीय इतिहास में देखा गया तो राजनीति और धर्म में कोई अंतर नहीं था, राजाओं की निति धर्म के अनुसार ही निर्धारित होती थी. महाभारत जैसे बड़े युद्धों को भी धर्मयुद्ध की उपमा दी जाती हैं. वर्तमान में राजनीति पर धर्म का वों सकारात्मक प्रभाव देखने को नही मिलता हैं, जो एक समय में देखने को मिलता था. औपनिवेशिक काल में अंग्रेजों की डिवाइड एवं रूल के निति ने हिन्दुओं तथा मुस्लिमों को एक दूसरे के प्रति लड़ाते रहे. भारत पाक अंग्रेजों की नापाक राजनीति का हिस्सा था.
भारत की स्वतंत्रता के बाद इन सता लोलुप शासकों ने अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए हमेशा धर्म की ओड़ ली, कट्टरता, भड़काऊ भाषण के द्वारा एक पक्ष को आहत कर दूसरे पक्ष की सहानुभूति हासिल करने की गंदी राजनीति आजादी मिलने से आज तक चली आ रही हैं. इस तरह की यह जूठी साम्प्रदायिकता भारत के भविष्य के लिए सबसे बड़ा खतरा है, जिनका पोषण हमारे राजनेता करते हैं.
राजनीतिशास्त्र में राजनीति को उन सिद्धांतों के रूप में स्वीकार किया जाता हैं, जिनसे शासन करने के लिए नीतिया अपनाई जाती हैं. साथ ही राजनीति सता तक पहुचने का एक रास्ता भी हैं. आदिकाल से ही राजनीति को शक्तिशाली लोगों का खेल माना गया हैं, जिसके पास अधिक ताकत होती थी, जो इसमें फतह कर जाता था. धर्म में सबसे अधिक शक्ति होती थी, शक्ति का केंद्र धर्म ही होने के कारण हमेशा से सता तक पहुचने के लिए धर्म का सहारा लेते हैं.
मानवीय मूल्यों का पोषण, धार्मिक जीवन तथा शान्ति एवं सद्भाव जैसे धर्म के मुख्य स्तम्भ हैं, वही राजनीति का उद्देश्य भी मानवीय मूल्य, जीवन मूल्यों तथा शान्ति व्यवस्था को कायम करना हैं. भारत हमेशा से सहिष्णुता का पुजारी रहा हैं, कई विदेशी जातियों ने यहाँ आक्रमण किया तथा यही पर रस बस गये. अपने अतीत गौरव के अनुसार जब भारत का संविधान बना तो इसे एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के रूप में मान्यता दी गईं.
मगर बहुत से सता स्वार्थी धूर्त राजनेता जो अंग्रेजों के संभवतः चापलूसी करने वाली की सन्तान ही रहे होंगे. इस तथ्य से भली भांति वाकिफ थे, कि भारत में राजनीति को धर्म से अलग नही रखा जा सकता. यह इस देश की कमजोरी हैं इसी का फायदा उठाते हुए उन्होंने धर्म के अखाड़े के रूप में राजनीति को तब्दील कर दिया.
धर्म के नाम पर हम अपने वतन का बंटवारा झेल चुके हैं. भारत के लोगों को अब जागना होगा. इन सता के भूखें इन गीदड़ो की चाल में अब हमे नही आना होगा. देश में यूरोपीय देशों की तरह धर्म मुक्त राजनीति बनाने की आवश्यकता हैं. तभी इस देश का भला हो सकता हैं. पवित्र धर्म को राजनीति के गंदे खेल में घसीटने की अनुमति न गीता देती न कुरान न ही बाइबिल या गुरु ग्रंथ साहिब.
हमारा धर्म चुनना हमारी स्वतंत्रता हैं, इसका मतलब यह नही कि हम हर बात को धर्म के नजरिये से ही देखे. अब वक्त आ चूका हैं धर्म व राजनीति में साठ गाठ करने वालों की दुकाने बंद होनी ही चाहिए. क्योंकि धर्म व्यक्ति की आस्था, परम्परा व इतिहास हैं इसे व्यक्ति तक ही रहने दिया जाए, न कि विवाद के साथ राजनेताओं के पक्ष-विपक्ष का मुद्दा.
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Explanation:
वैसे तो हमेशा धर्म और राजनीति को हमेशा एक दूसरे से अलग माना जाता रहा हैं. मगर आज के समय में ये एक दूसरे को इस प्रकार प्रभावित करते हैं, जिससे एक दूसरे को पूरक कहा जाना, गलत नही होगा. राजनितिक संस्थाएं लोगों में विश्वास तथा उनका प्रतिनिधित्व दर्शाने के लिए धर्म तथा धर्म से जुडी आस्था, विश्वास व परम्पराओं का सहारा लेते हैं. दूसरी तरफ आज हर धर्म की अपनी संस्थाएं जो प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष तौर पर राजनितिक दलों को अपना समर्थन देती हैं, तथा लोगो से अपील भी करती हैं. भारत में राजनीती एवं धर्म एवं राजनीती का संबंध गहरा हैं. विश्व की कई घटनाएं इस बात का प्रमाण रही हैं, जब जब सताधारी पक्ष अपनी राह भटके हैं, धार्मिक संतो व महापुरुषों द्वारा उन्हें सही राह पर लाने का यत्न हुआ हैं.भारत में कई ऐसे महापुरुष हुए हैं, जिनमें महात्मा बुद्ध, महावीर स्वामी तथा महात्मा गांधी आदि धर्म व् राजनीति के संगम रहे हैं. एक तरह ये लोग धर्म से जुड़े हुए थे, दूसरी तरह सताधारी पक्ष को गलत राहों के प्रति अपना विरोध जताकर, मानवीय मूल्यों तथा सिद्धांत का प्रचार-प्रचार कर समाज को हर राह पर लाने का प्रयास किया. दूसरे शब्दों में यदि राजनीति शरीर हैं तो उसमें व्याप्त आत्मा धर्म ही हैं, दोनों को पृथक किया जाना संभव नही हैं.
किसी भी राष्ट्र अथवा राज्य की राजनीति का स्वरूप व चरित्र वहां की सामाजिक, भौगोलिक तथा धार्मिक परिस्थतियों के अनुसार गढ़ा जाता हैं. यही वजह हैं कि भारत जैसे देश में लोग धर्म प्रिय हैं इसी कारण हर तरह के चुनावों में धर्म के नाम पर वोट भी मांगे जाते हैं. वही अमेरिका जैसे पश्चिम देशों की राजनीति में धर्म का राजनीति पर ना के बराबर प्रभाव पड़ता हैं.भारतीय इतिहास में देखा गया तो राजनीति और धर्म में कोई अंतर नहीं था, राजाओं की निति धर्म के अनुसार ही निर्धारित होती थी. महाभारत जैसे बड़े युद्धों को भी धर्मयुद्ध की उपमा दी जाती हैं. वर्तमान में राजनीति पर धर्म का वों सकारात्मक प्रभाव देखने को नही मिलता हैं, जो एक समय में देखने को मिलता था. औपनिवेशिक काल में अंग्रेजों की डिवाइड एवं रूल के निति ने हिन्दुओं तथा मुस्लिमों को एक दूसरे के प्रति लड़ाते रहे. भारत पाक अंग्रेजों की नापाक राजनीति का हिस्सा था.
भारत की स्वतंत्रता के बाद इन सता लोलुप शासकों ने अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए हमेशा धर्म की ओड़ ली, कट्टरता, भड़काऊ भाषण के द्वारा एक पक्ष को आहत कर दूसरे पक्ष की सहानुभूति हासिल करने की गंदी राजनीति आजादी मिलने से आज तक चली आ रही हैं. इस तरह की यह जूठी साम्प्रदायिकता भारत के भविष्य के लिए सबसे बड़ा खतरा है, जिनका पोषण हमारे राजनेता करते हैं.
राजनीतिशास्त्र में राजनीति को उन सिद्धांतों के रूप में स्वीकार किया जाता हैं, जिनसे शासन करने के लिए नीतिया अपनाई जाती हैं. साथ ही राजनीति सता तक पहुचने का एक रास्ता भी हैं. आदिकाल से ही राजनीति को शक्तिशाली लोगों का खेल माना गया हैं, जिसके पास अधिक ताकत होती थी, जो इसमें फतह कर जाता था. धर्म में सबसे अधिक शक्ति होती थी, शक्ति का केंद्र धर्म ही होने के कारण हमेशा से सता तक पहुचने के लिए धर्म का सहारा लेते हैं.