धर्म और राष्ट्रवाद पर टिप्पणी
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धर्म और राष्ट्रवाद का किसी विशिष्ट धार्मिक विश्वास, हठधर्मिता, या सहबद्धता से सम्बन्धन है। इस सम्बन्धन को दो पहलुओं में तोड़ा जा सकता हैं: धर्म का राजनीतिकरण और धर्म का राजनीति पर प्रभाव।
औपनिवेशिक गुलामी के दौर में जब राष्ट्रीय आंदोलन भारतीय राष्ट्रवाद की अवधारणा और उसके मूल्यों को स्वर दे रहा था, उस समय मुसलमानों और हिन्दुओं के एक तबके ने स्वयं को उपनिवेशवाद-विरोधी आन्दोलन से अलग रखते हुए क्रमशः मुस्लिम राष्ट्रवाद एवं हिन्दू राष्ट्रवाद के पक्ष में आवाज़ बुलंद की, इससे जुड़े हुए मूल्यों पर जोर दिया, ज़रुरत पड़ने पर औपनिवेशिक सत्ता के साथ सहयोग किया और यहाँ तक कि काँग्रेस का विरोध करने के लिए एक-दूसरे से हाथ तक मिलाया। इस पृष्ठभूमि में यदि मुस्लिम लीग ने मुस्लिम राष्ट्रवाद के प्रतिनिधित्व का दावा किया, तो हिन्दू महासभा और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने हिन्दू राष्ट्रवाद के प्रतिनिधित्व का दावा; लेकिन ये दोनों ही संगठन आजादी के उस आंदोलन से अलग ही रहे जो धर्मनिरपेक्ष-प्रजातांत्रिक मूल्यों की वकालत करता था और अपनी प्रकृति में समावेशी था। काँग्रेस की विडंबना यह रही कि मुस्लिम लीग उसे हिन्दुओं की पार्टी कहकर उस पर प्रहार करती रही, और हिन्दू महासभा उस पर मुस्लिम तुष्टिकरण के आरोप लगाती रही। हिन्दुत्व की विचारधारा को हिन्दू राष्ट्रवादियों ने अपना आधार बनाया, जिसका प्रतिपादन सन् 1923 में हिन्दू महासभा के अध्यक्ष विनायकराव दामोदर सावरकर ने अपनी पुस्तक ‘हिन्दुत्व ऑर हू इज ए हिन्दू’ में किया। आगे चलकर, सन् 1939 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दूसरे सरसंघ-चालक माधवराव सदाशिव गोलवलकर ने अपनी किताब ‘नेशनलिस्ट थॉट ऑर अवर नेशनहुड डिफाइंड’ में इसे विस्तार देते हुए सैद्धांतिक जामा पहनाया। अंग्रेज जानते थे कि ये संगठन राष्ट्रीय आंदोलन को कमजोर करेंगे, अतः उन्होंने पर्दे के पीछे से हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग, दोनों को समर्थन देना जारी रखा। ध्यातव्य है कि सन् 1925 में हिन्दुत्व की विचारधारा से प्रेरित होकर ही हिन्दू राष्ट्रवाद के रास्ते पर चलकर हिन्दू राष्ट्र के निर्माण के लक्ष्य के साथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ(RSS) का गठन किया गया।
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Commentary on religion and nationalism(translate into English but don't know this Question.