धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा पर निबंध Secularism Essay for UPSC
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राजनीति दर्शन में धर्म और राजनीति के संबंध को व्याख्यायित करने वाली कई विचारधाराएं रही हैं। एक धारा धर्म को राजनीति से अलग करने पर बल देती है, दूसरी धारा राजनीति को धर्म से मिलने पर बल देती है। (Secularism) कहते हैं, दूसरी धारा को धार्मिक कट्टरवाद (Religious Fundamentalism) कहते हैं। इसके अलावा तीसरी धारा भी है, जो व्यक्ति के संदर्भ में धर्म और राजनीति की अवियाज्यता (मिलाने) को स्वीकार करती है। किंतु राजनीतिक व्यवस्था के संदर्भ में या राज्य के परिप्रेक्ष्य में धर्म और राजनीति को अलग करने पर बल देती है। इस धारा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति गांधीवादी चितंन में हुई।
कुल मिलाकर धर्मनिरपेक्षवाद को दो धाराओं में वर्गीकृत किया जा सकता है: पश्चिमी एवं भारतीय। इन दोनों धाराओं की नकारात्मक एवं सकारात्मक अवधारणाएं हैं। जहां पश्चिमी परंपरा में धर्मनिरपेक्षवाद का नकारात्मक अर्थ है, धर्म का राजनीति से अलगाव है। वहीं भारतीय परंपरा में धर्मनिरपेक्षवाद का नकरात्मक अर्थ संप्रदाय से राजनीति के अलगाव के रूप में उभरा है। प्राय: भारत में धर्मनिरपेक्षवाद (Secularism) को धार्मिक कट्टरवाद और संप्रदायवाद (Communalism) के विरोध रूप में परिभाषित किया जाता है।
धर्मनिरपेक्षवाद की सकारात्मक व्याख्याएं भी पश्चिमी एवं भारतीय परंपरा से अलग-अलग हैं। पश्चिम में धर्मनिरपेक्षता सकारात्मक रूप में इहलौकिकवाद (This worldliness) है जबकि भारत में यह सर्वधर्मसमभाव है। इसलिए धर्मनिरपेक्षता की सकारात्मक अवधारणा पश्चिम में मूलत: धर्मविहीन एवं धर्मविरोधी है जबकि धर्मनिरपेक्षवाद की भारतीय अवधारणा अपने सकारात्मक रूप में न तो धर्मविराधी और न ही धर्मविहीन है और नेहरू के शब्दों में न तो धर्म से उदासीन है। क्योंकि भारतीय धर्मनिरपेक्षवाद धार्मिक सहिष्णुता और धार्मिक बहुलवाद पर आधारित है।
पश्चिम धर्मनिरपेक्षवाद एवं भारतीय धर्मनिरपेक्षवाद में उत्पित्ति विषयक परिस्थितियों में भी स्पष्ट अंतर रहा है। धर्मनिरपेक्षावाद की पश्चिमी अवधारणा चर्च एवं राज्य के अंत:संघर्ष से विकसित हुई है। इसलिए धर्म और राज्य तथा धर्म और राजनीति से अलगाव पश्चिम में केंद्रीय तत्व रहे हैं। जबकि भारतीय धर्मनिरपेक्षता की मूल चिंता यह है कि कैसे बहुलवादी समाज के विभिन्न संप्रदायों के व्यक्ति से राज्य का भेदरहित संबंध बनाया जाए?
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राजनीति दर्शन में धर्म और राजनीति के संबंध को व्याख्यायित करने वाली कई विचारधाराएं रही हैं। एक धारा धर्म को राजनीति से अलग करने पर बल देती है, दूसरी धारा राजनीति को धर्म से मिलने पर बल देती है। (Secularism) कहते हैं, दूसरी धारा को धार्मिक कट्टरवाद (Religious Fundamentalism) कहते हैं। इसके अलावा तीसरी धारा भी है, जो व्यक्ति के संदर्भ में धर्म और राजनीति की अवियाज्यता (मिलाने) को स्वीकार करती है। किंतु राजनीतिक व्यवस्था के संदर्भ में या राज्य के परिप्रेक्ष्य में धर्म और राजनीति को अलग करने पर बल देती है। इस धारा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति गांधीवादी चितंन में हुई।
कुल मिलाकर धर्मनिरपेक्षवाद को दो धाराओं में वर्गीकृत किया जा सकता है: पश्चिमी एवं भारतीय। इन दोनों धाराओं की नकारात्मक एवं सकारात्मक अवधारणाएं हैं। जहां पश्चिमी परंपरा में धर्मनिरपेक्षवाद का नकारात्मक अर्थ है, धर्म का राजनीति से अलगाव है। वहीं भारतीय परंपरा में धर्मनिरपेक्षवाद का नकरात्मक अर्थ संप्रदाय से राजनीति के अलगाव के रूप में उभरा है। प्राय: भारत में धर्मनिरपेक्षवाद (Secularism) को धार्मिक कट्टरवाद और संप्रदायवाद (Communalism) के विरोध रूप में परिभाषित किया जाता है।
धर्मनिरपेक्षवाद की सकारात्मक व्याख्याएं भी पश्चिमी एवं भारतीय परंपरा से अलग-अलग हैं। पश्चिम में धर्मनिरपेक्षता सकारात्मक रूप में इहलौकिकवाद (This worldliness) है जबकि भारत में यह सर्वधर्मसमभाव है। इसलिए धर्मनिरपेक्षता की सकारात्मक अवधारणा पश्चिम में मूलत: धर्मविहीन एवं धर्मविरोधी है जबकि धर्मनिरपेक्षवाद की भारतीय अवधारणा अपने सकारात्मक रूप में न तो धर्मविराधी और न ही धर्मविहीन है और नेहरू के शब्दों में न तो धर्म से उदासीन है। क्योंकि भारतीय धर्मनिरपेक्षवाद धार्मिक सहिष्णुता और धार्मिक बहुलवाद पर आधारित है।