धरती माँ की काया कैसे सुनहरी हो गई?
this is a question from the legendary poet Dwarika Prasad Maheshwari 'utho dhara ke amar saputo ' you can find the whole poem on internet
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सरहद पर खड़े जवान को फ़िक्र है अपनी धरती माँ की रक्षा की और सौदागर को फ़िक्र है इसे टुकड़ों में बाँटने की।
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इक लकी़र ने मुल्क़ बदल दिए और इक सौदागर ने इसको बाँट दिया।
किसी ने माथे का तिलक बनाया तो किसी ने महज़ ज़मीन का टुकड़ा समझा।
बच्चों के मिट्टी के घरोन्दे तो टूट जाते हैं पर बड़ों की खींची लक़ीरें नहीं मिटती।
किसान ने इस पर सोना बोया तो पैसे के वाशिन्दों ने धुँए की फैक्टरी खड़ी कर दी।
धरती का कण-कण आज ये पूछ रहा-
"क्या मैं हूँ महज पैसा कमाने का ज़रिया? "
दोस्तों! रक़्त बहाने के लिए तो बहुत लोग हैं
तुम ज़रा इसे अपने पसीने से सींचो।
इसकी खुशबू को फि़र महकने दो।
इसे इक बार फिर धरती माँ कहलाने दो।
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MARK AS BRAINLIST
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