धवन की किस बात से सभी को सबक लेना चाहिए
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राजनीति सहित तमाम क्षेत्रों में नेतृत्व की मौजूदा पीढ़ी सतीश धवन के जीवन से कई सबक ले सकती है
पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम जिन्हें अपना नायक मानते थे उन सतीश धवन का यह जन्म शताब्दी वर्ष है
रामचंद्र गुहा
27 सितंबर 2020
सतीश धवन के साथ एपीजे अब्दुल कलाम | फोटो स्रोत
पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम आजाद अक्सर नैतिक शिक्षाएं देने वाले किस्से सुनाया करते थे. एक किस्सा जो उन्हें खास तौर पर पसंद था वह जुलाई 1979 का है जब भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने एक सैटेलाइट लॉन्च किया था. इस परियोजना की कमान कलाम के हाथ में थी. उस समय इसरो में उनके कुछ साथियों ने लॉन्च की तैयारियां पक्की होने पर संदेह जाहिर किया था, लेकिन कलाम ने इसे दरकिनार करते हुए आगे बढ़ने का फैसला किया. लॉन्च नाकाम रहा. अंतरिक्ष में जाने की जगह सैटेलाइट बंगाल की खाड़ी में जा गिरा.
टीम के मुखिया होने के नाते कलाम के लिए यह शर्मिंदा होने वाली स्थिति थी. वे यह सोचकर और भी परेशान थे कि प्रेस के सामने यह ऐलान कैसे करेंगे. लेकिन इसरो के तत्कालीन मुखिया सतीश धवन ने उन्हें बचा लिया. वे खुद टीवी कैमरों के सामने जा पहुंचे और कहा कि इस असफलता के बावजूद उन्हें अपनी टीम की काबिलियत पर पूरा भरोसा है. सतीश धवन ने यह भी विश्वास जताया कि उनकी अगली कोशिश कामयाब होगी.
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इसके अगले ही महीने यानी अगस्त में कलाम और उनकी टीम ने सैटेलाइट को अंतरिक्ष में भेजने की एक और कोशिश की. इस बार यह सफल रही. सतीश धवन ने टीम को बधाई दी और कलाम से कहा कि इस बार प्रेस कॉन्फ्रेंस में वे जाएं. राष्ट्रपति रहते हुए और उसके बाद भी कलाम ने यह किस्सा कई बार सुनाया. वे कहते थे, ‘जब हम नाकामयाब रहे तो हमारे नेतृत्वकर्ता ने इसकी जिम्मेदारी ली. जब हम सफल हुए तो उन्होंने इसका श्रेय टीम को दिया.’
इसी महीने भारत का वैज्ञानिक समुदाय अब्दुल कलाम के इस नायक की जन्म शताब्दी मना रहा है. श्रीनगर में जन्मे सतीश धवन का पालन-पोषण और शिक्षा-दीक्षा लाहौर में हुई. यहां उन्होंने एक के बाद एक भौतिक विज्ञान व गणित, साहित्य और मैकेनिकल इंजीनियरिंग में डिग्रियां लीं. भारतीय संदर्भ में देखें तो विज्ञान, मानविकी और तकनीक की दुनियाओं को जोड़ने वाला शिक्षा का यह मेल अनोखा नहीं तो कुछ हटकर तो था ही. असल में 1930 और 1940 के दशक का लाहौर ऐसी ही जगह था जो इस तरह के नवाचार को प्रोत्साहन देता था. उन दिनों यह शहर संस्कृति और विद्या के श्रेष्ठ केंद्रों में से एक था जहां हिंदू, इस्लामी, सिख और यूरोपीय बौद्धिकता की धाराओं का संगम होता था.
1945 में अपनी तीसरी डिग्री लेने के बाद सतीश धवन बेंगलुरु आ गए. यहां एक साल तक उन्होंने हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड में काम किया. यह उपक्रम उन्हीं दिनों बना था. इसके बाद वे आगे की पढ़ाई के लिए अमेरिका चले गए जहां मिनेसोटा यूनिवर्सिटी से उन्होंने एमएस की डिग्री ली. इसके बाद सतीश धवन ने कैलिफोर्निया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी से भी एमएस और फिर एयरोनॉटिकल इंजीनियरिंग में पीएचडी की. आजादी और बंटवारे के वक्त वे विदेश में ही थे. बंटवारे के चलते उनके परिवार को पाकिस्तान छोड़कर भारत आना पड़ा.
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विदेश से भारत लौटने के बाद सतीश धवन भारतीय विज्ञान संस्थान (आईआईएससी) के एयरोनॉटिक्स विभाग से जुड़ गए. उनके शुरुआती छात्रों में से एक आर नरसिम्हा याद करते हैं कि ‘धवन संस्थान में युवाओं वाली ताजगी, आधुनिकता और ईमानदारी लेकर आए और साथ ही वह अनौपचारिकता भी जो उन्होंने कैलिफोर्निया के दिनों में पाई थी और जो उनके छात्रों और कई साथियों को सम्मोहित करती थी.’
आईआईएससी में सतीश धवन ने वह काम करना शुरू किया जिसमें उन्हें आनंद आता था. यह काम था शोध यानी रिसर्च. उन्होंने देश में पहली बार सुपरसोनिक विंड टनल बनाई. अपना नया बसेरा यानी बेंगलुरु उन्हें भाने लगा था. यहीं उन्हें जीन विज्ञानी नलिनी निरोदी से प्रेम हुआ और फिर दोनों विवाह बंधन में बंध गए.
1962 में सतीश धवन को आईआईएससी का निदेशक बना दिया गया. कहा जाता है कि उन दिनों यह जगह धीरे-धीरे अकादमिक ऊंघ वाली आरामतलब अवस्था में आती जा रही थी. सतीश धवन ने उसे इस ऊंघ से जगाया और आईआईएसी को देश का शीर्ष शोध संस्थान बना दिया. निदेशक के रूप में अपने कार्यकाल में उन्होंने यहां कंप्यूटर साइंस, मॉलीक्यूलर बायोफिजिक्स, सॉलिड स्टेट केमिस्ट्री, इकॉलॉजी और एटमॉसफेरिक साइंस जैसे विषयों में नए शोध कार्यक्रम शुरू करने में अहम भूमिका निभाई. सतीश धवन इस संस्थान के स्टाफ में देश-दुनिया के श्रेष्ठ विद्वान भी लेकर आए.