topic = " दूसरे को उपदेश देना जितना सरल उतना ही कठिन है "
प्रस्ताव लेखन in 200 to 250 words
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Explanation:
इस कहावत का अर्थ है- दूसरों को उपदेश देना बड़ा अच्छा लगता है। उपदेशक को उपदेश देना बड़ा प्रिय होता है। उपदेश का अपना महत्त्व होता है और इसका प्रभाव भी पड़ता है। राष्ट्र निर्माण में समाज-सुधारकों का भी महत्व है। वे हमारे पथ-प्रदर्शक होते हैं। वे आकाश-दीप की भाँति हमें दिशा-निर्देश देते हैं। पर उपदेशक की कथनी और करनी में साम्य की आवश्यकता होती है तभी उसी बात का प्रभाव पड़ता है। जब उपदेशक केवल उपदेश देता है और स्वयं उन पर अमल नहीं करता, तब वह प्रभावहीन हो जाता है। आज के युग में श्रोता भी बहुत समझदार हो गए हैं। वे आँख मींचकर किसी भी बात पर ऐसे ही विश्वास नहीं कर लेते। वे यह भी देखते ही हैं उपदेश देने वाले का जीवन किस प्रकार का है। वह किन बातों पर अमल करता है और किन्हें कहने तक सीमित रखता है। आप देखिए कि आपके साथ कोई भी बुरी घटना घटित हो जाए, आपको उपदेश देने वालों की भीड़ लग जाएगी। जीभ चलाने मात्र से कुछ होने वाला नहीं है। विचारों का क्रियान्वयन जरूरी होता है। उपदेश देना बड़ा सरल है। आजकल धार्मिक उपदेशकों की बाढ़ आई हुई है। वे ऐसे दर्शाते हैं कि मानो भगवान ने उनको अपने विचारों ठेका दे रखा है। इन ढोंगी बाबाओं का अपना जीवन बड़ा सुखपूर्ण है जबकि ये लोगों को सादगी की शिक्षा देते हैं। ये समझते हैं कि लोग इनकी बात पर आँख मूँदकर विश्वास करते हैं। दूसरों को उपदेश देने से पहले स्वयं व्यवहार में लाना सीखो। दूसरों को उपदेश देना अत्यंत सरल काम है। उपदेश देने के पीछे दो बातें काम करती हैं। एक तो उपदेशक स्वयं को संत के रूप में प्रस्तुत करता है तथा स्वयं को बहुत बड़ा ज्ञानी बाताने का प्रयास करता है। दूसरे वह सामने वाले को तुच्छ समझकर उसे अपने से हीन दर्शाने का भ्रम पालता है। प्रायः उपदेशकों के उपदेश व्यावहारिक नहीं होते। ये उपदेश सुनने में तो बड़े अच्छे प्रतीत होते हैं, पर इन पर अमल करना कठिन होता है। पर-उपदेश के संदर्भ में एक घटना का उल्लेख किया जाता है। एक स्त्री का बालक बहुत अधिक गुड़ खाता था। वह स्त्री बालक से गुड़ खाना छुड़वाना चाहती थी। बालक उसकी बात मानता नहीं था। अतः वह एक साधु के पास पहुँची और उसे अपनी समस्या बताई। साधु ने पूरी बात सुनकर कहा कि अगले हफ्ते आना। जब वह स्त्री अगले हफ्ते बालक को लेकर साधु महाराज के पास गई तो उसने बालक को समझाया- बालक अधिक गुड़ खाना हानिकारक है, इससे दाँत खराब हो जाते हैं। यह सुनकर स्त्री बोली- इतनी सी बात तो आप इससे उस दिन भी कह सकते थे, व्यर्थ दो चक्कर कटवाए। इस पर साधु ने कहा- ‘‘ बहन, उस दिन तक मैं भी गुड़ खाता था। इस सप्ताह में मैंने गुड़ खाना छोड़ा है तभी इस बच्चे को गुड़ न खाने का उपदेश दे पाया हूँ।’’ यह उदाहरण इस बात को समझने के लिए काफी है कि उपदेश के पीछे नैतिक बल का होना आवश्यक है। पहले स्वयं व्यवहार में लाओ, फिर किसी को उपदेश दीजिए। तभी उसका अपेक्षित प्रभाव पड़ सकेगा।