tulsi ki samanvay bhavana ko sodaharan kijiye
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समन्वय भारतीय संस्कृति की महत्वपूर्ण विशेषता है, समय-समय पर इस देश में कितनी ही संस्कृतियों का आगमन और आविर्भाव हुआ। परन्तु वे घुल मिलकर एक हो गई। समन्वय को आधार बनाने वाले लोकनायक तुलसी ने अपने समय की जनता के हृदय की धड़कन को पहचाना और 'रामचरितमानस' के रूप में समन्वय का अद्भुत आदर्श प्रस्तुत किया। तुलसी सही अर्थों में सच्चे सूक्ष्मद्रष्टा थे और उन्होंने बाल्यकाल से ही जीवन की विषम स्थितियों को देखा और भोगा था इसलिये वह व्यक्तिगत स्तर पर वैषम्य की पीड़ा से भली-भाँति परिचित थे। समन्वय से ही उन गहरी खाइयो को पाटा जा सकता था जो मनुष्य को मनुष्य से अलग, तुच्छ और अस्पृश्य बना रही थी। समन्वय से ही राजनीति को समदर्शी और शासन को लोक कल्याणकारी बनाया जा सकता था। फलतः तुलसी राम-भक्ति की नौका के सहारे समन्वय का संदेश देने निकल पड़े। लेकिन उनके संबंध में यह ध्यान रहे कि वह समन्वय के कवि है, समझौते के नहीं। 'डॉ. दुर्गाप्रसाद' भी यही मानते है
समन्वय की विचारधारा को सशक्त बनाने के लिए तुलसी ने अपने युग, परिस्थितियों का गंभीर अध्ययन और विवेचन किया होगा,तभी तो जो धर्म के नाम पर अनेक सम्प्रदायों में आडम्बर, अनाचार, जटिलता, पुरोहितवाद जैसी कुरीतियाँ पनप रही थी वहाँ भी तुलसी ने इस विषमता को समाप्त करने के लिये समन्वय का मार्ग अपनाया। उन्होंने शिव के मुख से 'सोइ सैम इष्टदेव रघुनीरा सेवत जाति सदा मुनिधीरा ' कहलवाकर शिव को राम का उपासक घोषित किया तो राम के मुख से-
शैव ओर वैष्णव सम्प्रदायों के समान उस युग मे वैष्णव और शाक्त सम्प्रदायों में भी पारस्परिक वैमनस्य पनप चुका था। वैष्णव विष्णु के उपासक थे और शाक्त शक्ति के तथा ये दोनों भी निरन्तर संघर्षरत रहते थे। तुलसी ने इस संघर्ष को समाप्त करने के लिए तथा उक्त दोनों सम्प्रदायों में सामंजस्य स्थापित करने के लिये सीता को शक्तिस्वररूपा बताया और उन्हें ब्रह्म की शक्ति कहते हुए 'उद्भावस्थिति संहारकारिणी क्लेशहारिणी सर्वश्रेयस्करी ' कहकर शक्ति की उपासना की।
तुलसी की धार्मिक समन्वय की दृष्टि हमें सगुण और निर्गुण भक्ति धाराओ के समन्वय में भी देखने को मिलती है। तुलसी के अवतरण से पहले ही भक्तिमार्ग सगुण और निर्गुण भक्तिधाराओ में विभक्त हो चुका था तथा इनके समर्थको के बीच निरंतर आपसी संघर्ष चलता रहता था। इस द्वेष से प्रभावित होकर सूरदास ने 'भ्रमरगीत' में निर्गुण का खण्डन और सगुण का मण्डन किया था। तुलसीदास इन विषमताओ को समाप्त करने के लिए संकल्पित थे, इसलिये उन्होंने सगुण ओर निर्गुण भक्तिधाराओ के बीच भी समन्वय स्थापित करने का प्रयत्न किया। उन्होंने अपने आराध्य श्रीराम को सगुण और निर्गुण दोनो रूपो में देखा तथा उपासना की।
तुलसीदास जी ने अपने युग की राजनीतिक विश्रृंखलता को गहराई से अनुभव किया था। उन्होंने महसूस किया कि राजा संकीर्ण विचारधारा से युक्त और आत्मकेंद्रित होते जा रहे है। प्रजा के कल्याण की ओर उनका तनिक भी ध्यान नही है। राजा और प्रजा के बीच गहरी खाई बनती जा रही है जबकि राजा और प्रजा से कही अधिक श्रेष्ठ, उन्नत और महान समझा जाता था वह ईश्वर का प्रतिनिधि भी था। ऐसे में तुलसी ने बड़ी ही निपुणता के साथ उन अशिक्षित, अयोग्य राजाओ की आलोचना करते हुए लिखा है-
दार्शनिक मत-मतान्तरों के मध्य व्याप्त द्वेष को समाप्त करने के लिए तुलसी ने इनके मध्य संतुलन स्थापित करने का प्रयास किया। उन्हीने द्वैत-अद्वैत, विद्या-अविद्या, माया और प्रकृति, जगतसत्य और असत्य, जीव का भेद अभेद, भाग्य एवं पुरुषार्थ तथा जीवनमुक्ति एवं विदेहमुक्ति जैसी दार्शनिक विचारधाराओ के बीच समन्वय स्थापित किया। अतः उस समय धर्म की आड़ में ही सामाजिक शोषण और सामाजिक सुधार होता था। तुलसी के दार्शनिक समन्वय को स्पष्ट करते हुए शिवदान सिंह चौहान कहते है-
"तुलसीदास के दार्शनिक समन्वय को देखते हुए यह नही भूल जाना चाहिये कि तुलसी लोकमर्यादा, वर्ण-व्यवस्था, सदाचार-व्यवस्था और श्रुति-सम्मत होने का ध्यान सदा रखते है। चाहे वह राम की भक्ति का प्रतिपादन करे , चाहे अद्वैतवाद का, चाहे माया का निरूपण करे या जीवन का विवेचन, चाहे शिव की वंदना करे या राम की, किन्तु वह अपनी इन बातों को किसी न किसी रूप में याद रखते है इसलिए तुलसी के समकालीन परिवेश में मुक्ति-प्राप्ति के दो मार्ग प्रचलित थे- ज्ञानमार्ग और भक्तिमार्ग। ज्ञानमार्ग के समर्थक ज्ञान को मुक्ति प्राप्त करने का उत्कृष्ट साधन मानते थे और भक्तिमार्ग के समर्थक इस दृष्टि से भक्ति को अधिक महत्व प्रदान करते थे। दोनो में अपने-अपने मत की उत्कृष्टता को लेकर पर्याप्त विवाद चलता रहता था। तुलसी ने अपने साहित्य के माध्यम से इस विवाद को समाप्त करने का सफल प्रयास किया है। उन्होंने अपने काव्य में जहाँ एक और ज्ञान को सृष्टि का सर्वाधिक दुर्लभ तत्व घोषित किया- 'हरि को भजे सो हरि को होई' और 'सियाराममय सब जग जानी' की समता पर आधारित भक्ति का वर्णन करते हुए भी शूद्र और ब्राह्मण के भेद को स्वीकार करते है।
निष्कर्षतः तुलसी ने तत्कालीन संस्कृतियों, जातियों, धर्मावलंबियों के बीच समन्वय स्थापित करके दिशाहीन समाज को नई दिशा प्रदान की। समन्वय का यह भाव उनकी अनुभूति एवं अभिव्यक्ति में भी झलकता है कवि की भाषा की सहजता, सरलता और उत्कट सम्प्रेषणीयता मानवमूल्यों को जोड़ती है। तुलसी के काव्य में संस्कृत, अवधी, ब्रजभाषा आदि भाषाओ का सुंदर सामंजस्य मिलता है। लोक ब्रह्म तुलसी ने भारतीय जनता की नस-नस को पहचान कर ही 'रामचरितमानस' के द्वारा समन्वयवाद का अद्भुत आदर्श प्रस्तुत किया। वैसे तो हमारी भारतीय संस्कृति में सब्र और समन्वय का भाव पहले भी था और आज भी है किन्तु आज भोग की प्रवृति प्रधान हो रही है। सामाजिक व्यवस्था के तार भी छिन्न-भिन्न हो रहे है। विश्वस्तर पर आतंकवाद चुनौती बन चुका है। इस प्रकार की विषम परिस्थिति में तुलसी की लोकपरक दृष्टि एवं समन्वयवादी विचारधारा ही मानवजाति को मानसिक एवं आत्मिक शन्ति प्रदान कर सकती है।