Hindi, asked by arpitsinghal46, 3 months ago

tulsidass ke bhakti bhaena par prakash daale



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Answered by ushasingh9191
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तुलसीदास के समय में भक्ति मार्ग अपने चरम पर था। कबीर दास और गुरूनानक की निर्गुण भक्ति का प्रभाव लगातार बढ़ता ही जा रहा था। 16वीं सदी में इस विचारक में कुछ परिवर्तन आया और लोग सगुण भक्तिधारा की ओर आकर्षित होने लगे। इस विचार धारा के उपासक भी दो धाराओं में बढ़े हुए थे। विष्णु भक्त इनके विभिन्न अवतारों को मानते थे तो दूसरी ओर शिव भक्त साधक थे। विष्णु के अवतारों में राम और कृष्ण के रूप की प्रधानता रही। भक्ति मार्ग के निगुण और सगुण साधकों में इतना विरोध था कि कभी-कभी इनका विवाद झगड़ों में बदल जाता था। इस प्रकार के झगड़े शैव और वैष्णव भक्तों के मध्य भी हो जाते थे।

तुलसीदास के समय में भक्ति मार्ग अपने चरम पर था। कबीर दास और गुरूनानक की निर्गुण भक्ति का प्रभाव लगातार बढ़ता ही जा रहा था। 16वीं सदी में इस विचारक में कुछ परिवर्तन आया और लोग सगुण भक्तिधारा की ओर आकर्षित होने लगे। इस विचार धारा के उपासक भी दो धाराओं में बढ़े हुए थे। विष्णु भक्त इनके विभिन्न अवतारों को मानते थे तो दूसरी ओर शिव भक्त साधक थे। विष्णु के अवतारों में राम और कृष्ण के रूप की प्रधानता रही। भक्ति मार्ग के निगुण और सगुण साधकों में इतना विरोध था कि कभी-कभी इनका विवाद झगड़ों में बदल जाता था। इस प्रकार के झगड़े शैव और वैष्णव भक्तों के मध्य भी हो जाते थे। ऐसा माना जाता है कि जहाँ अवतारों का काम समाप्त होता है वहाँ से संतों का कार्य आरम्भ होता है। समाज को जर्जर नियमों और रूढ़ियों से निकालकर समय के अनुरूप समाज को उचित रास्ता दिखाना एक संत का काम होता हैं लोगों की इस जड़ता को दूर कर उन्हें नवीन प्रकाश में लाना और उन्हें नवीन प्रकाश के साथ समन्वय स्थापित करने की ओर प्रेरित करना ही एक संत का मुख्य काम होता है। शंकराचार्य, चैतन्य, नानक, कबीर, रामदास तथा तुलसीदास को भी यही सब करना पड़ा।

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Answered by Anonymous
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Answer:

इन्होंने अपनी रचनाओं में राम के प्रति अनन्य भक्ति भाव को प्रकट किया है। तुलसीदास ने विद्वानों आचार्यों द्वारा बताए गए भक्ति के आधार को स्वीकार किया किया और कहा कि राग और क्रोध को जीतकर नीति पथ पर चलते हुए राम की प्रीति करना ही भक्ति है।

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