Hindi, asked by jtanmay1743, 1 year ago

Tyoharo ka mehtav pe anuched

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Answered by anviikhan
2
क्योंकि यह हमारे जीवन में एक बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, यह धार्मिक विश्वासों को दर्शाता है और त्योहार भी मज़ेदार हैं क्योंकि उस दिन हम सभी को एक दूसरे के करीब आने का रास्ता मिल जाता है
Answered by jagdish1581
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त्योहारों का महत्व ⤵⤵⤵

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त्योहार सांस्कृतिक और सामाजिक चेतना के प्रतीक हैं। जन-जीवन में जागृति लाने वाले और उनके श्रृंगार हैं। समष्टिगत जीवन में जाति की आशा-आकांक्षा के चिन्ह है, उत्साह और उमंग के प्रदाता हैं। राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता के द्योतक हैं।

जीवन की एक-रसता से ऊबे समाज के लिए त्यौहार वर्ष की गति के पड़ाव हैं। वह भिन्न-भिन्न प्रकार के मनोरंजन, उल्लास और आनंद प्रदान कर जीवन चक्र को सरस बनाते हैं। पर्व युगों से चली आ रही सांस्कृतिक परंपराओं, प्रथाओं, मान्यताओं, विश्वासों, आदर्शों, नैतिक, धार्मिक तथा सामाजिक मूल्यों का वह मूर्त प्रतिबिंब है जो जन-जन के किसी एक वर्ग अथवा स्तर-विशेष की झांकी ही प्रस्तुत नहीं करते, अपितु असंख्य जनता की अदम्य जिजीविषा और जीवन के प्रति उत्साह का साक्षात एवं अन्तः स्पर्शी आत्म दर्शन भी कराते हैं।

त्यौहार सामाजिक सांस्कृतिक की आत्मा को अभिव्यक्त देते हैं तो सामाजिक सामूहिकता का बोध कराते हैं और अगर विद्वेषकारी मतभेद कहीं है तो उनके विस्मरण की प्रतीति कराते हैं। इसलिए त्योहारों की व्यवस्था समाज कल्याण और सुख-समृद्धि के उत्पादों के रूप में हुई है। भारतीय समाज में ज्ञान का प्रसार करने के लिए श्रावण की पूर्णिमा को श्रावणी उपाकर्म के रूप में ज्ञान की साधना का पर्व मनाया जाता है। समाज में शौर्य की परंपरा बनाए रखने के लिए और भीतरी चुनौतियों का सामना करने के लिए शक्ति अनिवार्य है अतः शक्ति साधना के लिए विजयदशमी पर्व को मनाने की व्यवस्था हुई। समाज को सुख और समृद्धि की ओर ले जाने के लिए संपदा की जरूरत होती है उसके लिए दीपावली को लक्ष्मी पूजन का पर्व शुरू हुआ। विविध पुरुषार्थों को साधते समय समाज में एक या दूसरी तरह की विषमता उत्पन्न हो जाती है। इस विषमता की भावना को लुप्त करने के लिए और सभी प्रकार का मनोमालिन्य मिटाने के लिए स्नेहभाव की वृद्धि के लिए होली पर्व की प्रतिष्ठा हुई।

जब जब प्रकृति ने सोलह-श्रृंगार सजाकर अपना रूप निखारा, रंग बिरंगे फूलों की चुनर ओढ़ी। खेत-खलिहानों की हरीतिमा से अपना आवरण रंगा या चांद तारों की बिंदिया सजाई तब-तब प्रकृति के इस बदलते सौंदर्य से मानव मन में उमड़ती उमंग उल्लास के रूप में प्रकट होकर त्योहार का सृजन किया। प्रकृति की सजीवता से मानव उल्लासित हो उठा। प्रकृति ने संगिनी बनकर उसे सहारा दिया और सखी बनकर जीवन। प्रसन्न मानव ने धरती में बीज डाला। वर्षा ने उसे सीचा, सूर्य की गर्मी ने उसे पकाया, जल और सूर्य मानव के आराध्य बन गए। श्रम के पुरस्कार में जब खेती लहलहाई तो मानव का हृदय खिल उठा, उसके चरण थिरक उठे, वाणी मुखर हो गई, संगीत स्रोत फूट पड़े। वाणी ने उस आराध्य की वंदना की जिसने उसे सहारा दिया था। सभ्यता के विकास में मानव की उमंग और प्रभु की प्रति आभार प्रकट करने के लिए अभ्यर्थना और नृत्य संगीत ही उसका माध्यम बने। यह वही परंपरा तो है जो त्योहारों के रूप में आज भी जीवंत है।

त्योहारों का महत्व पारिवारिक बोध की जागृति में है, अपनत्व के विराट रूप दर्शन में है। होली तथा दीपावली पर परिवारजनों को तथा दीपावली पर इष्ट मित्रों को भी बधाई पत्र तथा मिष्ठान आदि भेजना अपनत्व की पहचान ही तो है। त्योहार कर्तव्य बोध के संदेशवाहक के नाते भी महत्वपूर्ण हैं। राखी ने भाई को बहन की रक्षा का संदेश दिया। होली ने बैर-भाव भूलकर एकता का संदेश दिया। दशहरे ने पाप के विनाश के प्रति कर्तव्य का बोध कराया। दीपावली ने अंधकार में भी ज्योति का संदेश दिया।

त्योहार राष्ट्रीय एकता के उद्घोषक हैं, राष्ट्र की एकात्मता के परिचायक हैं। कश्मीर से कन्याकुमारी और कच्छ से कामरूप तक विस्तृत इस पुण्य भूमि भारत का जन-जन जब होली, दशहरा और दीपावली मनाता है, होली का हुड़दंग मचाता है, दशहरे के दिन रावण को जलाता है और दीपावली की दीप पंक्तियों से घर आंगन द्वार को ज्योतिर्मय करता है तब भारत की जनता राजनीति निर्मित उत्तर तथा दक्षिण का अंतर समाप्त कर एक सांस्कृतिक गंगा धारा में डुबकी लगाकर एकता का परिचय दे रही होती है।

दक्षिण का ओडम, उत्तर का दशहरा, पूर्व की दुर्गा-पूजा और पश्चिम का महारास जिस समय एक दूसरे से गले मिलते हैं तब भारतीयों तो अलग, परदेशियों तक के ह्रदय-शतदल एक ही झोंके में खिल खिल जाते हैं। इसमें अगर कहीं से बैसाखी के भंगड़े का स्वर मिल जाए या राजस्थान की पनिहारी की रौनक घुल जाए तो कहना ही क्या? भीलों का भगेरिया और गुजरात का गरबा अपने आप में लाख-लाख इंद्रधनुष अल्हड़ता के साथ होड़ लेने की क्षमता रखते हैं।

कवि इकबाल की जिज्ञासा,’ कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी’ का समाधान हमारे पर्व और त्यौहार ही हैं। सतयुग से चली आती त्योहार-परंपरा, द्वापर और त्रेता युग को पार कर कलयुग में भी भारतीय संस्कृति और सभ्यता की ध्वजा फहरा रही है। प्रत्येक आने वाले युग ने बीते युग को अपनाया और त्योहार की माला में गूंथकर रख दिया। इस माला के फूल कभी सुखे नहीं क्योंकि हर आने वाली पीढ़ी ने ना सिर्फ उन फूलों को सहेज कर रखा वरन उनमें नए फूलों की वृद्धि भी की। और यह त्योहार भारतीय सभ्यता और संस्कृति के दर्पण बन गये।

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