Hindi, asked by sarthakrawat498, 11 months ago

tyoharo ke badalta swarup par nibandh

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Answered by ujjwalusri
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भारत में कई पर्व हैं| होली, दिवाली, ईद, क्रिसमस, इत्यादि | हमारा भारत इन रंग बिरंगे त्योहारों के लिए पूरी दुनिया में मशहूर है| आजादी से लेकर आज तक न जाने कितने त्यौहार आए और वक़्त के साथ साथ इनका स्वरुप बदलता गया| मैंने कुछ त्योहारों के बदलते स्वरुप को देखा है -

दिवाली सबका पसंदीदा त्योहार है| पटाखे, मिठाईयां, दिये, सबको भाते| पहले दिवाली पर सब अपने अपने घरों में दिये सजाते, उसमें अपने हाथों से बाती बनाकर लगाते, पटाखे कुछ गिने चुने होते, बच्चों को आवाज़ वाले पटाखे पसंद आते| धनतेरस से ही खरीद्दारी शुरू हो जाती- नए बर्तन, सोना, नए कपड़े, पूजा के लिए घरोंदे, चीनी मिट्टी के छोटे छोटे बर्तन हाट से लाते, लकड़ी की गाड़ी बाजारों में मिलती, बूंदी के लड्डू और गुलाब जामुन | अब दिवाली काफी बदल गयी| पटाखे आज भी हैं पर उनकी आवाज़ बड़ी से बड़ी होती जा रही है, घरोंदों में अब दिलचस्पी कम सी हो गई है| लकड़ी की गाड़ी की जगह अब लाइट वाले चाइनीस खिलोने आ गए हैं, मिठाईयों की जगह अब चॉकलेट आ गए | दिये भी रंग बिरंगे बाजारों में एक से एक मिलने लगे, अब कहा अपने हाथों से दिया सजाना और बाती बनाना होता है|

होली पहले पांच छ दिन पहले से ही शुरू हो जाती | छतों पर बच्चे बाल्टी में रंग भरकर रास्ते से गुजरते हर इंसान को नहला देते, गुझिया, समोसे, मालपुए हफ़्तों पहले से बनते और रिश्तेदारों में बटते| होली के दिन बड़ी पिचकारी का शौक होता और बस सबको रंग लगाना, होली के बहाने मोहल्ले की औरतों से छेड़ छाड़ और हसी मज़ाक पर सब एक दायरे में होता| अब होली में गुब्बारे मारना शामिल हो गया है, इसमें में अपना मजा है, पिचकारियाँ और रंग बिरंगी तरह तरह की आ गयीं हैं, गुझिया, मालपुए, दही बड़े तो आज भी बनते हैं, पर अब गाने बजाने का भी चलन आ गया है| युवाओं में अब फ़िल्मी गानों पर डीजे और होली पार्टी देने का चलन है| रंग हानिकारक और केमिकल से भरे आने लगे हैं, अब एक दो दिन की ही छुट्टियाँ होती|

ईद में जहाँ सेवइयां का शौक, सफ़ेद कुर्ते में जचते लड़के| आज भी वही सब रौनक है, बिरयानी खाना, सेवइयां खिलाना, खिलोने खरीदना| नया कुछ है तो फ़िल्मी गाने और नयी आई फिल्मों को पहले सिनेमा घर में देखने की होड़| 

ईद में जहाँ सेवइयां का शौक, सफ़ेद कुर्ते में जचते लड़के| आज भी वही सब रौनक है, बिरयानी खाना, सेवइयां खिलाना, खिलोने खरीदना| नया कुछ है तो फ़िल्मी गाने और नयी आई फिल्मों को पहले सिनेमा घर में देखने की होड़| क्रिसमस भी अब सिर्फ इसाईओं तक नहीं सिमट कर रह गया है| अब तो चर्च खुले रहते हैं और क्रिसमस मानो हर किसी का त्यौहार हो गया है| सैंटा क्लॉज़ बने बच्चे, चर्च में मोमबत्ती जलाना, केक खाना, क्रिसमस ट्री सजाना, तरह तरह की एक से एक सजावटी लाइट मिलती हैं| 

त्योहार आते हैं लोगों को एक करने के लिए, ये याद दिलाने के लिए की हसी ख़ुशी से साथ रहने में ही मजा है| आज भी त्यौहार लोगों को एक करते हैं, अब वो सादगी तो नहीं रही पर उल्लास आज भी रहता है, इस भागम भाग भरी दुनिया में त्यौहार अब एक थेरेपी का काम करते हैं, इसी बहाने लोग अपने ही परिवार से मिल पाते हैं, काम की भाग दौड़ में थोड़ी खुशियाँ बाट लेते हैं| त्योहार हमारे देश की पहचान है, और हमारे लिए जीने का अंदाज

Answered by Sanav1106
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त्योहारों का बदलता स्वरूप

वर्षा ऋतू की विदाई के साथ हरी भरी प्रकृति और शीत ऋतू की सुनाई देने वाली दस्तक के बीच त्योहारों का जो सिलसिला शूरू होता है वह शीत ऋतू की विदाई के साथ ही खत्म हो पाता है | लेकिन वक्त के साथ हमारे इन त्योहारों का स्वरूप तेजी से बदल रहा है | सही अर्थो में यह बदलता स्वरूप हमे त्यौहार के सच्चे उल्लास से कही दूर ले जा रहा है |

अगर थोडा पीछे देखे तो पता चलता है कि कुछ समय पहले दीपावली की तैयारिया महीना भर पहले से ही शुरू हो जाया करती थी | महिलाये दीवारों , दरवाजो और फर्श को सजाने का काम स्वयं करती थी लेकिन आज कहा है हाथो की वह सजावट | बड़े उत्साह के साथ दीये खरीदे जाते | उन्हें तैयार किया जाता और फिर तेल और बाती डाल कर उनसे पुरे घर को दुल्हन की तरह सजा दिया जाता था |

लेकिन अब किसे है इतनी फुर्सत | बिजली के रंगीन बल्बों की एक झालर डाल क्र सजावट कर दी जाती है | लेकिन कहा दीये की नन्ही लौ का मुंडेर-मुंडेर टिमटिमाते जलना और कहा बिजली के गुस्सैल बल्बों का जलना बुझना | परन्तु यही तो बदलाव की एह बयार जिसने त्योहारों के पारम्परिक स्वरूप को डस लिया है | यही नही , अब कहा है पकवानों की खुशबु और खीर से भरी बड़ी बड़ी थालिया जो बच्चो को कई दिन तक त्यौहार का मजा देते थे |

दरअसल आज हमारे जीने के तरीका ही बदल गया है | इस नई जीवन शैली ने हमे अपने त्योहारों में निहित स्वाभाविक उल्लास से काट दिया है | अब तो लोग दीपावली के दिन ही पठाखे और मिठाइया खरीदने दौड़ते है | मिठाई भी ऐसी की चार दिन तक रखना मुश्किल हो जाए |

शहरों में बाजार हफ्ता भर पहले ही जगमगा उठते है | चारो ओर तामझाम और महंगी आधुनिक चीजो से बाजार पट सा जाता है | महंगी मिठाइया ,मेवे , गिफ्ट पैक , खेल खिलौने ,चांदी सोने की मुर्तिया और सिक्के और भी न जाने क्या क्या | इन सबके बीच दीपावली से जुडी पारम्परिक चीजे धीरे धीरे गायब हो रही है |

पारम्परिक आतिशबाजी का स्थान ले लिया है दिल दहला देने वाले बमो और पटाखों ने | एक से बढकर एक महंगे पठाखे | हर साल करोड़ो रूपये के पटाखे दीपावली के नाम फूंक दिए जाते है | सरकारी और गैर सरकारी संगठनो की तमाम अपीले भुला दी जाती है बल्कि अब तो मुहल्ले स्तर पर आतिशबाजी की होड़ सी मचने लगी है कि कौन कितने तेज और देर तक आतिशबाजी क्र सकता है |

कुछ ऐसा ही बदल गया है इस दिन घर मकान की सजावट का स्वरूप | अब दीये की झिलमिलाती बाती का स्थान ले लिया है बिजली की सजावट ने | किस्म-किस्म की लकदक झालरे और सजावटी कलात्मक महंगी मोमबत्तिया | बेचारे मिटटी के दीयो का कोई पुरहासाल नही | कुछ तो तेल महंगा और कुछ बदली रुचियों और आधुनिकता की मार |

दीपावली पर उपहार देने की परम्परा रही है लेकिन उपहार एवं तोहफों का यह स्वरूप भी मिठाई अथवा खील बताशो तक सिमित नही रहा | सजावटी घड़ी चांदी के खुबसुरत सिक्के , कलात्मक मूर्तियों एवं गहने , डिब्बाबंद मेवे और भी तमाम चीजे उपहार में जुड़ गयी है | यही नही विदेशी शराब की बोतलों को भी उपहार में देने की संस्कृति तेजी से विकसित हुयी है |विदेशी चॉकलेट के महंगे गिफ्ट पैक भी उपहार में दिए जाने लगे है | विज्ञापन ने इसकी जड़े जमाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है |

कुल मिलाकर देखे तो इस त्यौहार पर जो उत्साह उल्लास कभी हमारे दिलो दिमाग में बरबस घुल जाया करता था अब चोर दरवाजे से बस एक परम्परा का निर्वाह करते हुए आता है |

बहरहाल दीपावाली अक स्वरूप तेजी से बदल रहा है लेकिन जिस तरह से हमारी आस्था से जुड़े इस पर्व का सांस्कृतिक स्वरूप बिगड़ रहा है उसे अच्छा तो नही कहा जा सकता | धन वैभव ,सामर्थ्य प्रदर्शन , चकाचौंध ,दिखावा एवं स्वार्थ की जो प्रवृति तेजी से विकसित हो रही है इससे तो इस पर्व का मूल उद्देश्य ही खत्म हो जाएगा | दुसरे पर्वो एवं उत्सवो की तरह इसे तो एक त्यौहार की तरह ही हमारी जिन्दगी से जुड़ना चाहिए |

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