उचितेन पदेन वाक्यानि पूरयत -
लेखितुम, द्रष्टुम्, खादितुम्, रक्षितुम्, क्रीडितुम्
1. सः भोजनं _________ न इच्छति।
2. छात्राः __________क्रीडाक्षेत्रम इच्छति ।
3.वयम् विवेकानंद स्मारकं ___________ अगच्छाम।
4. सैनिकाः देशं ____________ सज्जाः।
5. सा पत्र _________ कलमम्. आनयति।
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Answer:
स्वामी विवेकानंद द्वारा मूल कविता अंग्रेज़ी में लिखी गयी जिसे मंजुला सक्सेना ने हिंदी में अनुवादित किया है।
जागो स्वर! उस गीत के जो जन्मा दूर कहीं,
सांसारिक मल जिसे छू न सके कभी,
गिरी कंदराओं में, सघन वनों की छायाओं में,
व्याप्त गहन शान्ति को, विषय वासना, यश, ऐश्वर्य
कर न सकें लेश भी भंग; उमड़े निर्मल-निर्झर जहां
आनंद का, जो जन्मे सत्य-ज्ञान से,
गाओ ऊंचे स्वर वही, सन्यासी निर्भीक, गाओ
ॐ तत्सत् ॐ
तोड़ फेंको बेड़ियाँ! बंधन जो बांधे तुम्हें
चाहें स्वर्णिम कनक के या हों भद्दे धातु के,
प्रेम-घृणा; शुभ-अशुभ और अनेकों द्वन्द
जानो बंदी-बंदी हैं, चाहें चुम्बित या हो पीड़ित, नहीं कभी वह मुक्त,
क्यूंकि बेड़ी सोने की भी नहीं बध कमज़ोर,
तोड़ो फिर उनको सदा, सन्यासी निर्भीक गाओ
ॐ तत्सत् ॐ
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अन्धकार को दो विदा, मृगतृष्णा का राज्य
क्षणिक चमक देकर जो भरे विषाद-विषाद
जीवन की यह तृष्णा है, अविरत ऐसी प्यास
जो घसीटती जीव को जन्म-मरण; फिर मरण-जन्म के घात
जो अपने को जीत ले, उसके वश संसार, जानो यह
और न फंसो, सन्यासी निर्भीक, गाओ
ॐ तत्सत् ॐ
'जो बोया वह काटना' कहते हैं और कारण-वश है
कार्य 'शुभ का शुभ; अशुभ का अशुभ; नहीं कोई
कर सकता अतिक्रमण नियम का इस,
किन्तु देह धारी सारे हैं निश्चित ही बद्ध, पूर्ण सत्य पर,
परे है नाम रूप से आत्म, सदा मुक्त, बंधन रहित
जानो तुम तो हो वही, सन्यासी निर्भीक, गाओ
ॐ तत्सत् ॐ
नहीं जानते सत्य वे जो देखे स्वप्न निरीह
माने 'स्व' को तात, मां, संतति, वामा, मित्र
लिंग रहित है आत्मा! कौन तात? कौन संतान?
आत्मा ही सर्वत्र है, नहीं और कुछ शेष
और वही तो हो तुम्हीं, सन्यासी निर्भीक गाओ
ॐ तत्सत् ॐ
मात्र एक ही तत्व है- मुक्त-जिज्ञासु-आत्म
नाम नहीं; न रूप है, न कोई पहचान,
उसका स्वप्न प्रकृति है, सृष्टि स्वप्न समान
साक्षी सबका आत्मा उससे प्रकृति अभिन्न,
जानो तुम तो हो वही, सन्यासी निर्भीक गाओ
ॐ तत्सत् ॐ
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