उचित स्थान पर अनुस्वार या अनुनासिक लगाइए-भिखमगा, दाए।
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अनुस्वार के उच्चारण में ‘अं’ की ध्वनि मुख से निकलती है। हिंदी में लिखते समय इसका प्रयोग शिरोरेखा के ऊपर बिंदु लगाकर किया जाता है। इसका प्रयोग ‘अ’ जैसे किसी स्वर की सहायता से ही संभव हो सकता है; जैसे – संभव।
इसका वर्ण-विच्छेद करने पर ‘स् + अं(अ + म्) + भ् + अ + व् + अ’ वर्ण मिलते हैं। इस शब्द में अनुस्वार ‘अं’ का उच्चारण (अ + म्) जैसा हुआ है, पर अलग-अलग शब्दों में इसका रूप बदल जाता है; जैसे
संचरण = स् + अं(अ + न्) + च् + अ + र् + अ + ण् + अ
संभव = स् + अं(अ + म्) + भ् + अ + व् + अ ।
संघर्ष = स् + अं(अ + ङ्) + घ् + अ + र् + ष् + अ
संचयन = स् + अं(अ + न्) + च् + अ + य् + अ + न् + अ
अनुस्वार प्रयोग के कुछ नियम
अनुस्वार के प्रयोग के निम्नलिखित नियम हैं-
(i) पंचमाक्षर का नियम – जब किसी वर्ण से पहले अपने ही वर्ग का पाँचवाँ वर्ग (पंचमाक्षर) आए तो उसके स्थान पर अनुस्वार का प्रयोग होता है; जैसे –
गङ्गा = गंगा,
ठण्डा = ठंडा,
सम्बन्ध = संबंध,
अन्त = अंत आदि।
(ii) य, र, ल, व (अंतस्थ व्यंजनों) और श, ष, स, ह (ऊष्म व्यंजनों) से पूर्व यदि पंचमाक्षर आए, तो अनुस्वार का ही प्रयोग किया जाता है; जैसे –
सन्सार = संसार,
सरक्षक = संरक्षक,
सन्शय = संशय आदि।
ध्यान दें – हिंदी को सरल बनाने के उद्देश्य से भिन्न-भिन्न नासिक्य ध्वनियों (ङ, ञ, ण, न और म) की जगह बिंदु का प्रयोग किया जाए। संस्कृत में इनका वही रूप बना रहेगा।
संस्कृत में – अङ्क, चञ्चल, ठण्डक, चन्दन, कम्बल।
हिंदी में – अंक, चंचल, ठंडक, चंदन, कंबल।