udhyami nar kavita mein kavi ne bhgyavaad ki apeksha karmvaad ko mehtav diya hai is kathan ki samisha kare
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उद्यमी नर रामधारी सिंह दिनकर Udyami Nar Ramdhari Singh Dinkar उद्यमी नर रामधारी सिंह दिनकर उद्यमी नर summary दिनकर की राष्ट्रीय चेतना रामधारी सिंह दिनकर की कविता संग्रह रामधारी सिंह दिनकर की कविता कुरुक्षेत्र हुंकार रामधारी सिंह दिनकर रामधारी सिंह दिनकर की कविता हिमालय दिनकर की कविता हुंकार रामधारी सिंह 'दिनकर' पुस्तकें उद्यमी नर explanation उद्यमी नर कविता
अँधेरे का दीपक
बादल को घिरते देखा है
साखी कबीरदास
तुलसीदास के पद Tulsidas Ke Pad
बाल लीला सूरदास
ब्रह्म से कुछ लिखा भाग्य में
मनुज नहीं लाया है
अपना सुख उसने अपने
भुजबल से ही पाया है
प्रकृति नहीं डरकर झुकती है
कभी भाग्य के बल से
सदा हारती वह मनुष्य के
उद्यम से, श्रमजल से
व्याख्या - कवि रामधारी सिंह दिनकर जी कहते हैं कि प्रकृति के भीतर या स्वयं प्रकृति में बहुत साड़ी धन - संपत्ति भरी पड़ी है। उद्यमी मनुष्य को यह सहज की प्राप्त है। यही इतनी बड़ी सम्पदा है कि यह हर किसी को सुखी और संतुष्ट कर सकती है। उद्यमी मनुष्य ही इस संसार को अपने पुरषार्थ द्वारा स्वर्ग बना सकते हैं।
२. भाग्यवाद आवरण पाप का
और शस्त्र शोषण का ,
जिससे रखता दबा एक जन
भाग दूसरे जन का ।
पूछो किसी भाग्यवादी से
यदि विधि अंक प्रबल है
पद पर क्यों देती न स्वयं
वसुधा निज रत्न उगल है ?
व्याख्या - कवि कहता है कि ईष्वर ने साड़ी सुख - संपत्ति के साधन धरती के अंदर छिपा दिए है। यह संपत्ति को केवल उद्यमी नर ही खोज सकते हैं।कवि कहता है कि ब्रह्मा बहले ही भाग्य विधाता है लेकिन उद्यमी नर इसे स्वीकार नहीं करता है। मनुष्य की अपनी सभ्यता आदिम युग से लेकर आज तक की यात्रा पुरुषार्थ से ही प्राप्त कर सकता है।अपने सुख को प्राप्त करने के लिए वह केवल उद्यमशीलता का का आश्रय लेता है। इस प्रकार मनुष्य अपने बाहुबल से प्रकृति में छिपे खजाने को प्राप्त करता है।
३. उपजाता क्यों विभव प्रकृति को
सीच -सीच वह जल से ?
क्यों न उठा लेता निज संचित
कोष भाग्य के बल से ।
और मरा जब पूर्वजन्म में
वह धन संचित करके
विदा हुआ था न्यास समर्जित
किसके घर में धर के ।
व्याख्या - कवि कहते हैं कि प्रकृति किसी मनुष्य के भाग्य के आगे नहीं झुकती है। वह हमेशा उद्यमी प्राणी के मेहनत से हारती है। इस संसार में केवल आलसी लोग ही भाग्य पर निर्भर रहने का प्रयास करते हैं। वे ज्योतिष पर ध्यान देते हैं ,अपनी हस्तरेखा पर ध्यान देते हैं। लेकिन ऐसे आलसी के हाथ कुछ नहीं लगता है। लेकिन उद्यमी व पुरुषार्थी मनुष्य ही अपने परिश्रम के बलपर अपार धन खोज निकालते हैं और अपने माथे पर लिखे हुए दुर्भाग्य के निशान मिटा देते हैं।
४. जन्मा है वह जहां , आज
जिस पर उसका शासन है
क्या है यह घर वही ? और
यह उसी न्यास का धन है ?
यह भी पूछो , धन जोड़ा
उसने जब प्रथम -प्रथम था
उस संचय के पीछे तब
किस भाग्यवाद का क्रम था ?
व्याख्या - कवि कहता है कि भाग्यवाद भाग्यवादिता का सिद्धांत केवल पाप का आवरण है। यह एक ऐसा अस्थ्तर है , जिसका आश्रय लेकर भाग्यवादी मनुष्य ,दूसरे मनुष्य का शोषण करता है। वह प्रकृति का अकूत भण्डार को अपने पास दबा कर रखता है जिससे कोई अन्य मनुष्य उसका उपयोग न कर सके। कवि कहता है कि यदि भाग्यवाद इतना प्रबल है तो किसी आलसी आदमी के पास क्यों नहीं ढेर - साड़ी धन संपत्ति रख आती है ,जबकि उद्यमी मनुषय अपने परिश्रम से धन - संपत्ति प्राप्त करता है।
५. वही मनुज के श्रम का शोषण
वही अनयमय दोहन ,
वही मलिन छल नर - समाज से
वही ग्लानिमय अर्जन ।
एक मनुज संचित करता है
अर्थ पाप के बल से ,
और भोगता उसे दूसरा
भाग्यवाद के छल से ।
व्याख्या - कवि मानना है कि मेहनती मनुष्य अपने श्रम से जल द्वारा धन अन्न उपजाता है , वह क्यों नहीं आलसी मनुष्य की तरह अपने भाग्य के सहारे सब कुछ क्यों नहीं प्राप्त कर लेता है। उद्यमी मनुष्य को मेहनत करना पड़ता है। एक आलसी मनुष्य अपने पाप कर्म द्वारा हाथ में संचित करता है। वह भाग्यवाद के छल से अन्य मनुष्य का शोषण करता है और पाप कर्म का लाभ उठाता है।
६. नर - समाज का भाग्य एक है
वह श्रम , वह भुज - बल है ,
जिसके सम्मुख झुकी हुई
पृथ्वी, विनीत नभ - तल है ।
जिसनें श्रम जल दिया ,
उसे पीछे मत रह जाने दो ,
विजित प्रकृति से सबसे पहले
उसको सुख पाने दो ।
व्याख्या - कवि का मानना है कि नर समाज अर्थात सभी मनुष्यों का भाग्य एक है।सभी की उन्नति मानव समाज का लक्ष्य है।पृथ्वी को झुकना पुरुषार्थ के बल पर ही संभव है।उद्यमी नर के आगे आकाश भी झुक जाता है।कवि कहता है कि आज के समय में जो व्यक्ति उद्यमी है उसे पृथ्वी का सुख सबसे पहले मिलना चाहिए।उसे पीछे नहीं हटाना चाहिए।वह अपने परिश्रम से सारे सुख - सुबिधाओं को उत्पन्न करता है।अतः सबसे पहले उसे सुख पाने का अधिकार बनता है।
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