उनासवी सदी मे कपड़ा उत्पादक बुनकरो क्या अवस्था थी
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भारत में बने सूती कपड़े की अच्छी क्वालिटी के कारण यूरोप के बाजार में उसकी बड़ी अच्छी मांग थी। इससे यहाँ के बुनकरों का जीवन सुखमय चल रहा था लेकिन जैसे जैसे ईस्ट इंडिया कम्पनी का प्रभाव बढ़ता गया वैसे वैसे हालात भी बदलते गये।
अठारहवीं सदी के मध्य तक ईस्ट इंडिया कम्पनी ने भारत में अपना बिजनेस जमा लिया था। इस अवधि में व्यापार के पुराने केंद्रों (जैसे सूरत और हुगली) का पतन हो चुका था, और व्यापार के नये केंद्रों (जैसे कलकत्ता और बम्बई) का उदय हुआ।
जब एक बार ईस्ट इंडिया कम्पनी ने अपनी राजनैतिक प्रभुता स्थापित कर ली तो इसने व्यापार पर अपने एकाधिकार को जताना शुरु कर दिया।
विविध रंगों, आंखों को सुकुन देने वाली डिजायनें, चमचमाते रूपों और शानदार ताना बाना और उनकी खूबसूरत बुनावट इन कपड़ों में एक विशिष्ट आकर्षण पैदा कर देती हैं। देश के पूर्वोत्तर क्षेत्र से लेकर कश्मीर और दक्षिणवर्ती हिस्से तक इन कपड़ों की विशिष्टताएं एक अनूठी और मोहक आकर्षण जगाती हैं। सदियों से, हथकरघा का संबंध कपड़ों से जुड़ी उत्कृष्ट भारतीय कारीगरी और लगभग प्रत्येक राज्य में लाखों हथकरघा कारीगरों को रोजगार का स्रोत उपलब्ध कराने से जोड़ा जाता रहा है।
तेजी से आ रहे बदलावों के बावजूद, कला एवं करघा परंपराएं कलाकारों और शिल्पकारों की कई पीढि़यों के सतत प्रयासों के कारण अब तक जीवित रही हैं जिन्होंने अपने सपनों एवं विजन को उत्कृष्ट हथकरघा उत्पादों में पिरोया और अपने कौशलों को अपनी आने वाली पीढि़यों तक रूपांतरित किया।
प्राचीन काल से ही, भारतीय हथकरघा उत्पादों की पहचान उनकी दोषरहित गुणवत्ता से की जाती रही है। इनमें चंदेरी का मलमल, वाराणसी के सिल्क के बेल बूटेदार वस्त्र, राजस्थान एवं ओडिशा के बंधेज की रंगाई, मछलीपटनम के छींटदार कपड़े, हैदराबाद के हिमरूस, पंजाब के खेस, फर्रुखाबाद के प्रिंट, असम एवं मणिपुर के फेनेक तथा टोंगम तथा बॉटल डिजायन, मध्य प्रदेश की महेश्वरी साडि़यां और वडोदरा की पटोला साडि़यां शामिल हैं।