Hindi, asked by mindarvekar, 10 months ago

उनचास मेघ , उनचास पवन के माध्यम से कवि का सकेंत किस ओर है?

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Answered by ashish151177
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Answer:

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Answered by brainhackergirl13
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Answer:

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Explanation:

विगत 6 दिसंबर (2017) को जब देश बाबासाहेब आंबेडकर को उनके परिनिर्वाण दिवस पर याद कर रहा था, राजस्थान के राजसमन्द जिले में एक बेहद शर्मनाक घटना हुई. शंभूलाल नामक व्यक्ति ने एक मजदूर मोहम्मद अफराजुल की गैंती से मारकर और जलाकर हत्या कर दी. बंगाल से मजदूरी करने आए अफराजुल की शंभूलाल से कोई निजी दुश्मनी नहीं थी. उसे इस्लाम से नफरत की घुट्टी पिलाई गई थी. उसने हत्या के समूचे कुकृत्य की अपने नाबालिग भतीजे से वीडियो रिकार्डिंग करवायी. यह वीडियो निहायत घिनौना था लेकिन मानसिक रूप से बीमार लोगों ने बड़े पैमाने पर इसे साझा किया. कुछ लोगों ने उसे अपना नायक माना. कलालवटी मुहल्ले का शंभूलाल रैगर जाति से है. इस मुहल्ले में रैगर जाति के अतिरिक्त खटीक जाति के लोग रहते हैं. ये दोनों जातियां दलित मानी जाती हैं. तमाम बुद्धिजीवियों और दलित कार्यकर्ताओं ने उचित ही इस व्यक्ति को दलित समुदाय से जोड़कर देखने का विरोध किया. फिर भी, चाहे-अनचाहे व्यापक समाज में यह संदेश तो गया ही कि एक दलित ने ‘लव जिहाद’ से खफा होकर यह कदम उठाया है. वैसे भी इस साल का छः दिसंबर बाबरी मस्जिद ध्वंस की पचीसवीं बरसी के रूप में था. फेसबुक पर सक्रिय शंभू ने ‘दुनिया भर में फैले इस्लामी जिहाद’ को रोकने का संकल्प व्यक्त किया था. शंभूलाल रैगर का फेसबुक पेज ‘शंभू भवानी’ के नाम से है. नाम में यह परिवर्तन असल में शंभू की समझ के विरूपीकरण का परिणाम है. व्यक्तित्वांतरण का यह उदाहरण उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार बेशक अपवादस्वरूप हो लेकिन वस्तुस्थिति इससे भिन्न हो सकती है. ‘मेटामॉरफोसिस’ की यह प्रक्रिया दलित साहित्य के समक्ष विकट चुनौती की तरह है.

अपनी निरंतरता बनाए रखने के लिए हिंसक संरचना कई तरह के जतन करती है. अपने अनुकूल चरित्रों का पुनरुत्पादन, मेटामॉरफोसिस इसी का हिस्सा है. संरचना के हित-चिंतकों को भलीभांति पता होता है कि समूचे समाज को सांचे में नहीं ढाला जा सकता. ढांचे की उत्तरजीविता के लिए न्यूनतम बानगियों का प्रबंध करते रहना उनके लिए ज्यादा मुश्किल नहीं होता. समाज का जो तबका अपने को अधिकारसंपन्न समझता है वह तो ढाँचे की रक्षा में सन्नद्ध रहता है लेकिन जो अधिकारविहीन, संपदावंचित और (प्रत्यक्ष हिंसा से) उत्पीड़ित तबका होता है उसमे से भी कुछ लोग छाँट लिए जाते हैं. ‘प्रयोगशाला’ में डाले गए ऐसे लोग एक स्थिर और समरूप हिंदू अस्मिता में विश्वास करने लगते हैं. हिंदुत्व की संकल्पना के प्रति निपट अनालोचनात्मक बना दिए गए लोग सुदूर अतीत में स्वर्णकाल का दर्शन करते हुए वर्तमान को संकटग्रस्त मानते हैं. संकट का कारण हमेशा बाहरी हुआ करता है. कभी ईसाई, कभी इस्लाम तो कभी कम्युनिज्म. धर्म और राष्ट्र को एकमेक कर चुके ये लोग संकटनिवारण में अपनी भूमिका तलाशते हुए आसान शिकार की खोज करते हैं. अफराजुल ऐसा ही आसान शिकार बना.

संरचना को निरंतरता प्रदान करने वाली दूसरी श्रेणी अधिक परिष्कृत, सूक्ष्म और अनपहचानी है. इस श्रेणी के लोग प्रयोगशाला के नहीं, परिवेश के उत्पाद होते हैं. यह बाहरी नहीं, अंदरूनी मामला होता है. इसमें धर्म नहीं, जाति की सक्रियता होती है. जाति-संरचना का उत्पाद बन गए इस श्रेणी के लोग अविचारित घृणा करते हैं. उनकी घृणा का तापक्रम जाति के पदानुक्रम के अनुरूप आरोही क्रम में बढ़ता जाता है. इस प्रतिक्रियात्मक घृणा से सवर्ण अपनी घृणा को औचित्य प्रदान करते हैं. सवर्णसत्ता या ज्यादा सटीक तरीके से कहें तो ब्राह्मणसत्ता का घोर विरोधी व्यक्ति यह नहीं समझ पाता कि वह वास्तव में उस ढाँचे को वैध ठहराने में अपना योगदान दे रहा है!

तीसरी श्रेणी उन लोगों की है जो अपनी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए कायांतरण करते हैं. ये लोग अपनी चेतना को स्वयं ही आगे बढ़कर उनके हवाले कर देते हैं जिनके विरुद्ध अब तक संघर्ष करते आए हैं. चेतना सौंपते ही इनका रंग-ढंग बदल जाता है. भाषा बदल जाती है. मौन और मुखरता का स्थान परिवर्तन हो जाता है. जिस तेवर की कमाई से कामना-पूर्ति का सौदा किया गया था उसे बरकरार रखने की पूरी कोशिश की जाती है. जिस तेवर की धार पहले ही भोथरी हो चुकी थी उसे ऐसी कोशिशें उत्तरोत्तर हास्यास्पद बनाती जाती हैं. कायांतरण से महत्वाकांक्षी व्यक्ति जितना अर्जित करता है उसका दुगुना उसके उत्पीड़ित समुदाय को चुकाना पड़ता है और उसका कई गुना उस आंदोलन को जिसमें वह कल तक सम्मिलित था. आंदोलन की अगुआई करने वाले अन्य लोग भी ऐसी सौदेबाजी से संदेह के घेरे में आ जाते हैं. यथास्थिति के प्रहरी इस स्थिति का लाभ उठाते हैं. अविश्वसनीयता का माहौल दीर्घावधि तक परिवर्तनकामी आंदोलनों की अकूत क्षति करता है. स्वार्थ और संरचना की सौदेबाजी में फायदा अनिवार्य रूप से संरचना का होता है. यही कारण है कि आंदोलन की रहनुमाई करने वाले (प्रच्छन्न) स्वार्थियों को चीन्हने और जो बिकने को तैयार नहीं हैं उनमें महत्त्वाकांक्षा जगाने का काम प्रमुखता से किया जाता है. जय प्रकाश लीलवान ने इस कोटि के मेटामॉरफोसिस को अपनी कई कविताओं का विषय बनाया है. उनकी कविता ‘नए क्षितिजों की ओर’ का यह अंश देखिए-

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