Hindi, asked by divyamjan24, 5 months ago

उनकी एक नजर बहुत कुछ कह गई। जिन् यंत्रणाओं के बीच में घिरे थे और जिस मन सि्थति में जी रहे थे, उसमें आंखें ही बहुत कुछ कह देती हैं‌, मुंह खोलने की जरूरत नहीं पड़ती। लेखक ने ऐसा क्यों कहा स्पष्ट कीजिए​

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Answered by narendersingh83374
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Answer:

ch ka name or kuch information to de do bhaii

Answered by jagwinder6068
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Answer:

पथ पर बिखरा जीवन

उस रोज़ हम लोग फैजाबाद में थे। यानी अयोध्या। गुलाब बाड़ी और बेगम बहू का मकबरा देखने के बाद गुपतार घाट जा रहे थे। सरयू का वह तट, जहां कहा जाता है कि राम ने जल समाधि ली। भाई लक्ष्मण के न रह जाने, सीता को त्याग देने और लोकापवादों में घिरे अकेले थके राम का वह उत्तर जीवन था।

हमारे साथ सुप्रसिद्ध पर्यावरणविद अनुपम मिश्र थे, उनकी पत्नी मन्जु और युवा आलोचक-कला समीक्षक ज्योतिष जोशी। अनुपम जी विनम्रता, सहजता और पर्यावरण के प्रति उतनी ही गहरी गंभीर चिंता से भरपूर एक पारदर्शी व्यक्तित्व हैं। इन दिनों वे राजस्थान के सुदूर रेगिस्तानी क्षेत्रों के पारंपरिक जल संरक्षण पर अत्यंत महत्वपूर्ण काम कर रहे हैं। निर्जल-सूखे इलाकों में सदियों से रहने वाले निरक्षर लेकिन परिश्रमी निवासियों में पीढ़ी दर पीढ़ी विकसित होती जल-संरक्षण की देसज अभियांत्रिकी को उन्होंने जिस तरह से जाना-बूझा है और उनका दस्तावेजीकरण किया है, आगे चल कर वह बहुत उपयोगी होगा।

`पेट्रोलियम नहीं, अगला विश्वयुद्ध पानी के लिए लड़ा जाएगा।´ उन्होंने कहा फिर अयोध्या के बारे में सोचा। `जहां युद्ध न हो, वह अयोध्या। ........और जहां किसी तरह की हिंसा न हो, किसी का वध न हो, वह अवध।´ दिसंबर का वह दिन एक हताश दिन था। निराशाओं में डूबा।

गुपतार घाट में सरयू सूख रही है। तट पर इतनी गंदगी है कि नदी तक जाने से मन हिचकता है। जो राजनीतिक दल बाबरी मिस्ज़द को ध्वस्त करके करोड़ों रुपयों का राम मंदिर वहां बनाने की योजना बना रहे हैं, वे उस जगह, जहां राम ने अपने प्राण त्यागे, एक सार्वजनिक सुलभ ‘शौचालय' क्यों नही बनवाते। या दो-ढाई हज़ार रुपये की तनख्वाह पर एक चौकीदार वहां क्यों नहीं रख देते, जो लोगों को उस जगह `दिसा-फराकत´ करने से रोके। शायद नागरिक व्यवस्था और साफ-सफाई अब राजनीति के दायरे से बाहर जा चुकी है। राम से उनका कोई धार्मिक-अध्यात्मिक सरोकार भी नहीं है। सिर्फ दमन, दंगा और कमाई और हिंसा और वोटों का हिसाब-किताब ही उसके लोकतांत्रिक अपकर्म में शामिल है। त्रिलोचन जी की एक कविता याद आई :

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