उपभोक्तावाद संस्कृति से आप क्या समझते हैं
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जब हम उपभोक्तावादी संस्कृति की बात करते हैं तो उपभोग तथा उपभोक्तावाद में फरक करते हैं । उपभोग जीवन की बुनियादी जरूरत है । इस तरह के उपभोग में हमारा भोजन शामिल है जिसके बिना हम जी नहीं सकते या कपड़े शामिल हैं जो शरीर ढकने के लिए और हमें गरमी , सरदी और बरसात आदि से बचाने के लिए जरूरी हैं । ...
Explanation: MARK IT AS BRAINLIEST
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जब हम उपभोक्तावादी संस्कृति की बात करते हैं तो उपभोग तथा उपभोक्तावाद में फरक करते हैं । उपभोग जीवन की बुनियादी जरूरत है । इसके बगैर न जीवन सम्भव है और न वह सब जिससे हम जीवन में आनन्द का अनुभव करते हैं । इस तरह के उपभोग में हमारा भोजन शामिल है जिसके बिना हम जी नहीं सकते या कपड़े शामिल हैं जो शरीर ढकने के लिए और हमें गरमी , सरदी और बरसात आदि से बचाने के लिए जरूरी हैं । इस तरह जीवन की रक्षा करनेवाली या शरीर की तकलीफों को दूर करनेवाली दवाएँ , ऋतुओं के प्रकोप से बचाने के लिए घर , ये सब उपभोग की वस्तुएं हैं । औरतों और मर्दों द्वारा एक दूसरे को आकर्षित करने के श्रृंगार के कुछ साधन भी उपभोग की वस्तुओं में आते हैं ।यह बिलकुल प्राकृतिक और स्वाभाविक जरूरत है । मनुष्य में ही नहीं , पशु-पक्षियों और पेड़-पौधों में भी नर और मादा के बीच आकर्षण पैदा करने के लिए सुन्दर रंगीन बाल , रोयें और पंख , भड़कीले रूप , मीठे संगीतमय स्वर तथा तरह-तरह की गंध प्रकृति की देन हैं । इन सब गुणों की उपयोगिता जीवों में विभिन्न मात्रा में रूप , रंग , गंध , स्वर आदि के प्रति स्वभाव से प्राप्त आकर्षण से आती है । यही स्वाभाविक आकर्षण एक ऊँचाई पर मनुष्यों में सौन्दर्यबोध को जन्म देता है । इसी बोध से मनुष्य विभिन्न कलाओं और विज्ञान को जन्म देता है । अपने परिवेश को नृत्य , संगीत , चित्र , मूर्त्ति आदि से सजाना या साहित्य और विज्ञान के जरिए अपने वातावरण का प्रतीकात्मक अनुभव करना , मनुष्य को सबसे ऊँचे दर्जे का आनन्द देता है । इस प्रक्रिया में निर्मित कलावस्तु , पुस्तक आदि सब मनुष्य के स्वाभाविक उपभोग के क्षेत्र में आते हैं । संक्षेप में उपभोग की वस्तुएँ वे हैं , जिसके अभाव में हम स्वाभाविक रूप से अप्रीतिकर तनाव का अनुभव करते हैं , चाहे वह भोजन के अभाव में भूख की पीड़ा से उत्पन्न हो अथवा संगीत एवं कलाओं के अभाव में नीरसता की पीड़ा से।
इसके विपरीत ऐसी वस्तुएँ , जो वास्तव में मनुष्य की किसी मूल जरूरत या कला और ज्ञान की वृत्तियों की दृष्टि से उपयोगी नहीं हैं लेकिन व्यावसायिक दृष्टि से प्रचार के द्वारा उसके लिए जरूरी बना दी गयी हैं , उपभोक्तावादी संस्कृति की देन हैं । पुराने सामंती या अंधविश्वासी समाज में भी ऐसी वस्तुओं का उपभोग होता था जो उपयोगी नहीं थीं बल्कि कष्टदायाक थीं – उदाहरण के लिए चीन में कुलीन महिलाओं के लिए बचपन से पाँव को छोटे जूते में कसकर छोटा रखने का रिवाज । लेकिन यह प्रचलन औरतों की गुलामी और मर्दों की मूर्खता का परिणाम था । अत: शोषण की समाप्ति या चेतना बढ़ने के साथ इसका अंत होना लाजमी था । लेकिन उपभोक्तावादी संस्कृति ऐसी वस्तुओं को शुद्ध व्यावसायिकता के कारण योजनाबद्ध रूप से लोगों पर आरोपित करती है और मनोविज्ञान की आधुनिकतम खोजों का इसके लिए प्रयोग करती है कि इन वस्तुओं की माया लोगों पर इस हद तक छा जाये कि वे इनके लिए पागल बने रहें ।