Upbhokta ke adhikaro ko abhivaykt karte hue do mitro ke bich chote samvad likheye
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एक पुरानी कहावत है कि पूँजीवादी समाज में उपभोक्ता ही राजा होते हैं क्योंकि वे उद्योगपतियों के उत्पादों के प्रति जो अनुक्रिया अपनाते हैं, उनसे ही उस समाज की पूरी अर्थव्यवस्था का स्वरूप निर्धारित होता है। दूसरे शब्दों में, बाजार नियंत्रित समाजों की मूलभूत प्रकृति यह है कि यहां उत्पादक एवं उपभोक्ता पूरी अर्थव्यवस्था को चलाने के लिए दो पहियों की तरह काम करते हैं मगर व्यवहारत: उपभोक्ता उत्पादक की तुलना में अधिक आधार प्रदान करता है। यह स्थति तब और स्पष्ट हुई जब विश्व के विभिन्न अर्थव्यवस्थाओं में उदारीकरण तथा वैश्वीकरण की संकल्पना को अपनाया गया तथा बाजार के खिलाडि़यों के बीच प्रतिस्पर्धा की शुरूआत हुई। इस परिस्थिति में कम से कम सिद्धान्तत: उपभोक्ताओं को अधिक से अधिक सुरक्षा की आवश्यकता वस्तुओं के उत्पादकों एवं खुदरा विक्रेताओं के साथ संबंध बढ़ने के कारण हुई ताकि उनके सहूलियत के लिए अधिक से अधिक पसंद उपलब्ध हो। हाल के वर्षों में सिद्धान्तहीन एवं अधिक मुनाफा कमाने की सोच वाले उत्पादक एवं व्यापारी द्वारा उपभोक्ताओं की भलाई के विपरीत काम किया गया है और वस्तुओं तथा सेवाओं के क्रयों पर उपभोक्ताओं को असहाय एवं उपेक्षा का शिकार बनाया है। जीवन की विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु उपभोक्ता प्राय: व्यापारियों द्वारा बड़े पैमाने पर फैलाए झूठे वादे के झांसे में आ जाते हैं। इस दिशा में उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा के लिए और उनके दावे के निराकरण हेतु तकनीक के विकास के लिए देश में उपभोक्ता संरक्षण कानून को 1986 में पारित किया गया। उपयुक्त शीर्षक के तहत उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा से संबंधित विभिन्न मामलों का आलोचनात्मक विश्लेषण किया गया है। इसके अलावा उपभोक्ताओं के अधिकार एवं दायित्व का भी विश्लेषण किया गया है। साथ ही, तथा देश में शिकायत निवारण तंत्र की स्थिति पर विशेष जोर देते हुए उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 के कार्यों की विश्लेषणात्मक व्याख्या पर भी जोर दिया गया है।
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