उष्ण व्यञ्जनानि सन्ति-
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भारतीय आर्य भाषाओं का मूल संस्कृत भाषा है। संस्कृत शब्द ‘सम् + कृ + क्त’ के योग से बना है, जिसका अर्थ है-शुद्ध एवं परिमार्जित भाषा। प्राचीनकाल में संस्कृत का वैदिक रूप भी रहा है, जिसमें वैदिक साहित्य लिखा गया है, किन्तु आज जिसे संस्कृत भाषा कहते हैं, वह लौकिक संस्कृत है। इस भाषा के आदिकवि महर्षि वाल्मीकि थे और महर्षि पाणिनि ने इसे पहली बार एक आदर्श व्याकरण के साँचे में ढाला था।
लौकिक संस्कृत का आधारस्तम्भ महर्षि पाणिनि द्वारा रचित ‘अष्टाध्यायी’ ही है, जिसकी रचना निम्नलिखित् चौदह ‘माहेश्वर सूत्रों के आधार पर की गई है। इनकी उत्पत्ति भगवान् शिव के डमरू से मानी जाती
है। ये माहेश्वर सूत्र हैं
(1) अ इ उ। (2) ऋ लू क्। (3) ए ओ। (4) ए औ च्। (5) ह य व र ट्। (6) ल ण्। (7) अ म ङ ण न म्।। (8) झ भ। (9) घ ढ ध। (10) ज ब ग ड द श्। (11) ख फ छ ठ थ च ट त। (12) क प य्। (13) श ष स र्। (14) ह ले।
इन सूत्रों के भिन्न-भिन्न खण्ड ‘प्रत्याहार’ कहलाते हैं। इनमें प्रमुख प्रत्याहार हैं-‘अच्’ और ‘हल्’।
‘अच्’ प्रत्याहार के अन्तर्गत सभी स्वर आते हैं और ‘हल् प्रत्याहार के अन्तर्गत सभी व्यञ्जन परिगणित होते हैं। इसलिए जिन शब्दों के अन्त में व्यञ्जन होता है, उन्हें हलन्त’ और जिन शब्दों के अन्त में स्वर होता है, उन्हें ‘अजन्त’ कहा जाता है।
कुल मिलाकर प्रत्याहार सूत्रों की संख्या 42 है जिनमें संस्कृत की सम्पूर्ण वर्णमाला समाहित हो जाती है। ये निम्न निम्नलिखित हैं
(1) अण् (2) अक् (3) अच् (4) अट् (5) अण् (6) अम् (7) अश् (8) अल् (9) इक् (10) इच् (11) इण् (12) उक् (13) एङ् (14) एच् (15) ऐच् (16) हश् (17) हल् (18) यण् (19) यम् (20) यञ् (21) यय् (22) यर् (23) वश् (24) वल् (25) रल् (26) मय् (27) भ् (28) झs (29) हश् (30) झय् (31) झर् (32) झल् (33) भष् (34) जश् (35) वश् (36) खय् (37) खर् (38) छ्व् (39) चय् (40) चर् (41) शर् (42) शल्।।
प्रत्याहार बनाने की रीति-‘प्रत्याहार’ का अर्थ है-संक्षेप में कथन। माहेश्वर सूत्रों से प्रत्याहार बनाने के नियम निम्नलिखित हैं-
(1) सूत्रों के अन्तिम अक्षर (ण् क् आदि) प्रत्याहार में नहीं गिने जाते हैं। अन्तिम अक्षर प्रत्याहार बनाने में साधन हैं।
(2) जो प्रत्याहार बनाना हो, उसके लिए प्रथम अक्षर सूत्र में जहाँ हो, वहाँ ढूँढ़ना चाहिए। अन्तिम अक्षर सूत्र के अन्तिम अक्षरों में ढूंढ़िए। प्रत्याहार के प्रथम वर्ण से लेकर अन्तिम वर्ण तक पहले के सभी वर्ण उस प्रत्याहार में गिने जायेंगे।
जैसे-अच् प्रत्याहार में प्रथम वर्ण अ है, जो कि माहेश्वर सूत्र के प्रथम सूत्र का प्रथम वर्ण है। ‘च’ चौथे सूत्र का अन्तिम वर्ण है।
अतः अच् में अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, लू, ए, ऐ, ओ, औ, अर्थात् सारे स्वर समाहित होंगे।
इतना ध्यान अवश्य रखना चाहिए कि मध्य वर्गों में यदि अन्त में इत् भी आ जाये तो भी उनका प्रत्याहार में ग्रहण नहीं होता। जैसे अच् प्रत्याहार में ए, क्, ङ, का ग्रहण नहीं होता।
नोट-
संस्कृत के विद्यार्थियों को प्रत्याहार का ज्ञान आवश्यक है।
माहेश्वर सूत्रों के निश्चित क्रम को किसी भी स्थिति में भंग नहीं करें।
लिपि-देववाणी कही जाने वाली संस्कृत भाषा जिस लिपि में लिखी जाती है, उसका नाम ‘देवनागरी लिपि है। यह बायें से दायें लिखी जाती है। प्राचीनकाल में संस्कृत भाषा ‘ब्राह्मी लिपि में लिखी जाती थी।
वर्ण-(1) वर्ण उस मूल ध्वनि को कहते हैं, जिसके टुकड़े न हो सकें। जैसे-क, ख, ग आदि। इनके टुकड़े नहीं किये जा सकते। इन्हें अक्षर भी कहते हैं-‘न क्षीयते, न क्षरति वा इति अक्षरम्’। अर्थात् जिसके टुकड़े न हो सकें, उसे वर्ण कहते हैं।
वर्ण भेद-संस्कृत में वर्ण दो प्रकार के माने गये हैं
(क) स्वर वर्ण, इन्हें अच् भी कहते हैं।
(ख) व्यञ्जन वर्ण, इन्हें हल भी कहा जाता है।
(क) स्वर वर्ण-जिन वर्गों की उच्चारण करने के लिए अन्य किसी वर्ण की सहायता नहीं लेनी पड़ती है, उन्हें ‘स्वर वर्ण’ कहते हैं। भाव यह है कि जिन वर्णो अथवा अक्षरों का उच्चारण स्वतन्त्र रूप से अपने आप होता है, किसी अन्य वर्ण की सहायता नहीं लेनी पड़ती है, उन्हें स्वर वर्ण कहते हैं। जैसे-अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ऋ, लू, ए, ऐ, ओ, औ। इनकी संख्या 13 है।
स्वरों का वर्गीकरण-उच्चारण काल अथवा मात्रा के आधार पर स्वर तीन प्रकार के माने गये हैं
(1) ह्रस्व स्वर
(2) दीर्घ स्वर
(3) प्लुत स्वर।
(1) ह्रस्व स्वर-जिन स्वरों के उच्चारण में केवल एक मात्रा का समय लगे, अर्थात् कम से कम समय लगे, उन्हें ह्रस्व स्वर कहते हैं। जैसे-अ, इ, उ, ऋ, लु। इनकी संख्या 5 है। इनमें कोई अन्य स्वर या वर्ण मिश्रित नहीं होता, इन्हीं को मूल स्वर भी कहते हैं।
(2) दीर्घ स्वर-जिन स्वरों के उच्चारण काल में ह्रस्व स्वरों की अपेक्षा दुगना समय लगे, अर्थात् दो मात्राओं का समय लगता है, वे दीर्घ स्वर कहलाते हैं। जैसे-आ, ई, ऊ, ऋ, ए, ओ, ऐ, औ। इनकी संख्या 8 है।
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