History, asked by maahira17, 10 months ago

उत्तर दीजिए ( लगभग 100 से 150 शब्दों में) दक्कन के रैयत ऋणदाताओं के प्रति क्रुद्ध क्यों थे?

Answers

Answered by nikitasingh79
1

दक्कन के रैयत ऋणदाताओं के प्रति निम्नलिखित कारणों से क्रोधित थे :  

  • जब कपास की मांग तेज थी, तब ऋण दाता उन्हें व्यापक स्तर पर ऋण दिया था, लेकिन कपास की मांग में गिरावट आते ही इन ऋणदाताओं में रैयतों को ऋण देने से मना कर दिया और दिए गए ऋण को वापस मांगने लगे।

  • औपनिवेशिक शासन व्यवस्था द्वारा राजस्व की दर 50% से 100% बढ़ा दी गई। राजस्व की दर उस समय बढ़ाई गई थी ,जब कीमतें गिर रही थी और कपास के खेत गायब हो रहे थे। राजस्व को चुकाने के लिए उन्हें ऋणदाताओं के पास जाना पड़ा , लेकिन इस बार ऋणदाताओं ने ऋण देने से इंकार कर दिया।

  • रैयतों की  आर्थिक स्थिति इतनी कमजोर हो गई थी कि दैनिक उपयोग की जरूरत को भी ऋण से ही पूरा किया जाता था, लेकिन ऋणदाता इतने संवेदनहीन हो गए थे कि उनके हालत पर तरस भी नहीं खा रहे थे।

  • रैयतों से बंध पत्रों तथा दस्तावेजों पर अंगूठा लगवा दिया जाता था लेकिन वास्तव में उन्हें यह भी पता नहीं होता था कि उनसे किस दस्तावेज पर हस्ताक्षर करवाए जा रहे हैं । इन्हें प्रत्येक लिखे हुए शब्द से डर लगने लगा था।

  • दिए गए ऋणों का ब्याज 10 से 20 गुना तक वसूल किया जाता था । ऐसे ही एक उदाहरण में ढक्कन आयोग ने बताया था कि ऋण दाता ने रु 100 के मूलधन पर रुपए दो हजार से अधिक ब्याज लगा रखा था।

आशा है कि यह उत्तर आपकी अवश्य मदद करेगा।।।।

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Answered by shishir303
1

रैयत ऋणदाताओं से निम्न कारणों से क्रुद्ध थे...  

  • दक्कन के साहूकार अर्थात ऋण दाता रैयतों का अनेक प्रकार से आर्थिक शोषण करते रहते थे। वह उनसे ऊंची ब्याज दर पर उन्हें ऋण देते थे और ऋण का भुगतान करते समय वह रैयतो को ऋण की रसीद भी नहीं देते।  
  • ऋणदाता ऋण के इकरारनामा में गलत आंकड़ों को भरे लेते थे और उन आँकड़ों के आधार पर फसलों का दाम बहुत कम आंकते तथा उनकी धन-संपत्ति पर भी अधिकार कल लेते थे।  
  • ऋणदाता ऋण देने के संबंध में  गाँव देहात के पारंपरिक नियमों का भी पालन नहीं करते थे, जिसके अनुसार ब्याज मूलधन से अधिक नहीं लिया जा सकता। ऋणदाता खुलेआम इस नियम की थज्जियां उड़ाते और मूलधन से अधिक ब्याज लेते थे। कभी-कभी 100 रूपये के मूलधन पर रहे 2000 से भी अधिक काम ब्याज ले लेते थे।
  • ऋण दाता चालाकी से बिना चुकाई गई ब्याज की राशि को नए अनुबंध पत्रों में शामिल कर लेते, इससे उनकी राशि बकाया रैयतों पर चढ़ती रहती और वह कानूनी पचड़ों से भी बच जाते थे।
  • 1870 के आसपास ऋणदाताओं ने देखा कि भारतीय कपास की मांग घटती जा रही है और कपास की कीमतों में गिरावट हो रही है, तो उन्होंने रैयतों को ऋण देने से मना कर दिया। इससे रैयतों मे ऋणदाताओं के प्रति गुस्सा हो गया कि वे इतने संवेदनहीन हो गये हैं कि रैयतों की तकलीफो से भी उन्हें कोई वास्ता नही।

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