उदारवादी गणतंत्र वादी नहीं थे इस कथन को स्पष्ट कीजिए
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उदारवादी राजनीतिक विचारधारा का विकास उन्नीसवीं सदी में हुआ था. मशहूर राजनीतिक विचारकों जेरेमी बेंथम, जॉन स्टुअर्ट मिल, थॉमस हिल ग्रीन और अन्य लेखकों की रचनाएं इसके प्रेरक तत्व थे. राजनीतिक उदारवाद का मुख्य सिद्धांत व्यक्तिगत स्वतंत्रता था. इसके बारे में और विस्तार से बताना चाहें, तो ये कहा जा सकता है कि इसका अर्थ, स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव, क़ानून का राज और इन दोनों की रक्षा करने वाले संस्थानों के प्रति व्यापक सम्मान का भाव था. उन्नीसवीं सदी में ही हमने मार्क्सवाद का उद्भव होते हुए भी देखा था. अगर उदारवाद का मुख्य बिंदु स्वतंत्रता था, तो मार्क्सवाद का केंद्रीय विचार था-समानता. उदारवादी लोकतांत्रिक राजनीतिक विचारधारा के लिए चुनौती ये थी कि वो मुक्त बाज़ार वाली अर्थव्यवस्था के दावों के साथ-साथ सभी नागरिकों को किसी न किसी तरह की समानता देने के बीच किस तरह से संतुलन स्थापित करे. 1970 के दशक में राजनीतिक विचारक सी. बी. मैक्फर्सन ने अपने लेखों के माध्यम से ये पाया कि उदारवादी राजनीतिक विचारधारा एंव बाज़ारवादी अर्थव्यवस्था को विश्व के दो तिहाई देशों ने ख़ारिज कर दिया है. या तो इन्हें मार्क्सवाद के नाम पर अस्वीकार किया गया. या फिर, रूसो की लोकलुभावन जनवादी इच्छा की विचारधारा के आधार पर ख़ारिज कर दिया गया. मैक्फर्सन ने उदारवाद के पश्चात के एक नए युग के उदय की कल्पना की, जहां पर राजनीतिक उदारवाद और मार्क्सवाद का संगम देखने को मिलेगा.
जब मैक्फर्सन अपनी ये किताब लिख रहे थे, तब भूमंडलीकरण का दौर नहीं आरंभ हुआ था. और जातीयता पर आधारित आंदोलनों के सीमित संकेत ही देखने को मिल रहे थे. अगले तीन दशकों में भूमंडलीकरण एवं नई तकनीकों के विकास के साथ-साथ सोवियत संघ के विघटन और चीन के प्रादुर्भाव ने हमारे अस्तित्व से जुड़े संपूर्ण संदर्भों और विचारों को परिवर्तित कर दिया. भूमंडलीकरण के चुंबकीय के विपरीत जातीयता पर आधारित एक अनुदारवादी राष्ट्रवाद उभरने लगा. सोवियत संघ के विघटन के साथ ही मार्क्सवादी स्वप्न का अंत हो गया. जबकि चीन के आर्थिक उभार ने इस स्वप्न को बल दिया कि समृद्धि के वैकल्पिक पथ भी हो सकते हैं, जो उदारवादी लोकतंत्र से अलग हैं. इसलिए, नई शताब्दी में उदारवाद के पश्चात की एक ऐसी व्यवस्था ने स्थान बनाना आरंभ किया, जिसकी कल्पना मैक्फर्सन ने बीसवीं सदी के आठवें दशक में ही की थी. आज उस व्यवस्था को राजनीतिक अनुदारवाद कहना अधिक औचित्यपूर्ण होगा.
जिन प्रमुख कारकों ने राजनीतिक अनुदारवाद के लिए स्थान बनाया, वो कुछ इस तरह थे: असल में दक्षिणपंथ, वामपंथ और केंद्रवादी राजनीतिक व्यवस्थाओं के बीच जो विभेद था, उसका लगातार क्षरण होता गया. क्योंकि राजनीतिक दलों के कार्यक्रम एक दूसरे से मिलने लगे. सामाजिक और वैचारिक ध्रुवीकरण के लिए कभी सामाजिक दर्जे का जो वर्गीकरण था, वो पुराना पड़ गया. सूचना एवं संचार की नई तकनीकों के विकास से नागरिकों के बीच सीधा संवाद संभव हो सका, वो भी कमोबेश मुफ़्त में. इसने पारंपरिक मीडिया के दरबान वाली भूमिका को भी नुक़सान पहुंचाया. साथ ही साथ इन तकनीकों ने सूचना को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत करने और राजनीतिक निगरानी के लिए अपार संभावनाओं को भी जन्म दिया. वैश्विक मजदूर आंदोलन की मांग के समानांतर ही पूंजीवाद के समर्थन में आंदोलन की मांग ने हर तरह के अप्रवासन के प्रति भय के माहौल को जन्म दिया. इसे जातीयता पर आधारित राष्ट्रवाद से और बल मिला. राजनीतिक घटनाक्रम के बारे में ज्ञान के विस्तार का दायरा राष्ट्रों की सीमाओं के दायरे से बाहर भी बख़ूबी होने लगा. इसका नतीजा ये निकलाता कि अलग-अलग देशों की राजनीतिक गतिविधियों की तुलना घटनाओं का संदर्भ समझे बिना ही होने लगा.
राजनीतिक उदारवाद लोकतंत्र को ख़ारिज नहीं करता. बल्कि, ये एक अनुदारवादी लोकतंत्र के एक नए विचार को प्रस्तावित करता है. हालांकि, ये बात बेहद अजीब मालूम होती है. अब जबकि पश्चिम के आर्थिक प्रभुत्व का लगातार पतन हो रहा है. इसी कारण से पश्चिम की संस्कृति और इसके राजनीतिक विचारों के प्रति भी आकर्षण कम हो रहा है. यहां तक कि, पश्चिमी यूरोप, जिसे उदारवादी लोकतंत्र का गढ़ कहा जाता था, वहां भी तानाशाही, जातीयता पर आधारित आंदोलन लगातार शक्तिशाली हो रहे हैं. तुर्की, अर्जेंटीना, इंडोनेशिया, मेक्सिको, थाईलैंड और फिलीपींस में लोकतंत्र नेपथ्य (backstage) में चला गया है. पूर्वी यूरोप के राष्ट्रों ने सोवियत संघ के विघटन के पश्चात, कभी उदारवादी लोकतांत्रिक व्यवस्था का आम नागरिकों की सक्रियता की वजह से खुले दिल से स्वागत किया था. लेकिन, अब वो पूर्वी यूरोपीय देश भी अनुदारवाद की ओर लौट चले हैं. और आज वो अनुदारवादी लोकतांत्रिक व्यवस्था के मुखर वक्ता बन गए हैं. हंगरी के प्रधानमंत्री विक्टर ओरबान ने 2014 में इस विचार को बड़ी मज़बूती से प्रस्तुत किया था. ओरबान के अनुसार, ‘एक लोकतांत्रिक व्यवस्था उदारवादी हो, ये आवश्यक नहीं. लेकिन, अगर कोई चीज़ उदारवादी नहीं है, तो भी ये लोकतांत्रिक हो सकती है. वैश्विक स्तर पर प्रतिद्वंदिता बनाए रखने के लिए हमें सामाजिक संगठन बनाने के लिए उदारवादी तौर-तरीक़ों और सिद्धांतों का परित्याग करना होगा.’ ओरबान का ये वक्तव्य अनुदारवादी लोकतंत्र का एक स्पष्ट एवं मज़बूत बचाव है.
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