Sociology, asked by jaideepreddy3249, 1 year ago

उदारवादियों को 1848 की क्रांति का क्या अर्थ लगाया जाता हैं? उदारवादियों ने किन राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक विचारों को बढ़ावा दिया?

Answers

Answered by nikitasingh79
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उत्तर :  

उदारवादियों कि 1848 की क्रांति :  

उदारवादियों कि 1848 की क्रांति फ्रांसीसी सामाज के मध्य वर्ग से संबंधित थी । इस क्रांति के कारण राजा को गद्दी छोड़ कर गणतंत्र की घोषणा करनी पड़ी । यह गणतंत्र पुरुषों के सर्वव्यापी मताधिकार पर आधारित था। यूरोप के अन्य देशों में जहां अभी स्वतंत्र राष्ट्र राज्य अस्तित्व नहीं आए थे, उदारवादी मध्यवर्गो ने संविधानवाद की मांग उठाई। इसका लक्ष्य राष्ट्रीय एकीकरण अर्थात राष्ट्रीय राज्य का निर्माण करना ही था । यह राष्ट्रीय राज्य संविधान , प्रेस की स्वतंत्रता, संघ बनाने की स्वतंत्रता तथा संसदीय सिद्धांत पर आधारित था। इस प्रकार उदारवादियों की 1848 की क्रांति का अर्थ राष्ट्रवाद की विजय से है जो राष्ट्र राज्यों के निर्माण का आधार था।

उदारवादी के विचार : उदारवादी ने निम्नलिखित राजनीतिक , सामाजिक तथा आर्थिक विचारों को बढ़ावा दिया :  

राजनीतिक विचार :

(क) उदारवादी निरंकुश राजतंत्र तथा पादरी वर्ग के विशेषाधिकारों के विरोधी थे। वह एक ऐसी सरकार बनाना चाहते थे जो सभी की सहमति से बने।

(ख) वे कानून के सामने बराबरी के पक्ष में थे । परंतु उनका यह विचार सबके लिए मताधिकार के पक्ष में नहीं था।

सामाजिक विचार :  

(क) उदारवादियों ने प्रेस की स्वतंत्रता पर बल दिया।  

(ख) उनका विचार था कि लोगों को संगठन बनाने की स्वतंत्रा होनी चाहिए।

आर्थिक विचार :  

(क) उदारवादी बाजारों की मुक्ति और समान तथा पूंजी के आवागमन पर राज्य द्वारा लगाए गए करों को समाप्त करने के पक्ष में थे।

(ख) वे निजी संपत्ति के स्वामित्व को अनिवार्य बनाना चाहते थे।

आशा है कि है उत्तर आपकी मदद करेगा।

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Answered by Anonymous
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Explanation:

इसके लिए प्रयुक्त अंग्रेजी शब्द सोशियोलॉजी लेटिन भाषा के सोसस तथा ग्रीक भाषा के लोगस दो शब्दों से मिलकर बना है जिनका अर्थ क्रमशः समाज का विज्ञान है। इस प्रकार सोशियोलॉजी शब्द का अर्थ भी समाज का विज्ञान होता है। परंतु समाज के बारे में समाजशास्त्रियों के भिन्न – भिन्न मत है इसलिए समाजशास्त्र को भी उन्होंने भिन्न-भिन्न रूपों में परिभाषित किया है।

अति प्राचीन काल से समाज शब्द का प्रयोग मनुष्य के समूह विशेष के लिए होता आ रहा है। जैसे भारतीय समाज , ब्राह्मण समाज , वैश्य समाज , जैन समाज , शिक्षित समाज , धनी समाज , आदि। समाज के इस व्यवहारिक पक्ष का अध्यन सभ्यता के लिए विकास के साथ-साथ प्रारंभ हो गया था। हमारे यहां के आदि ग्रंथ वेदों में मनुष्य के सामाजिक जीवन पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है।

इनमें पति के पत्नी के प्रति पत्नी के पति के प्रति , माता – पिता के पुत्र के प्रति , पुत्र के माता – पिता के प्रति , गुरु के शिष्य के प्रति , शिष्य के गुरु के प्रति , समाज में एक व्यक्ति के दूसरे व्यक्ति के प्रति , राजा का प्रजा के प्रति और प्रजा का राजा के प्रति कर्तव्यों की व्याख्या की गई है।

मनु द्वारा विरचित मनूस्मृति में कर्म आधारित वर्ण व्यवस्था और उसके महत्व पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है और व्यक्ति तथा व्यक्ति , व्यक्ति तथा समाज और व्यक्ति तथा राज्य सभी के एक दूसरे के प्रति कर्तव्यों को निश्चित किया गया है। भारतीय समाज को व्यवस्थित करने में इसका बड़ा योगदान रहा है इसे भारतीय समाजशास्त्र का आदि ग्रंथ माना जा सकता है।

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