उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः ।
न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः ।।1।।
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उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः ।
न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः ।।1।।
अर्थ : उद्यम करने से ही सारे कार्य सफल होते हैं, केवल मनोरथ करने से कार्य सफल नहीं होते, बिल्कुल उसी प्रकार जिस सोते हुए शेर के मुँह में हिरन स्वयं नही आ जाता।
व्याख्या : कहने का तात्पर्य यह है कि उद्यम करने से परिश्रण और प्रयास करने से तथा निरंतर अभ्यास करने से ही किसी कार्य में सफलता मिलती है। केवल बैठकर सोचते भर रहने से और कोई भी प्रयास ना करने से कार्य में सफलता नहीं मिलती। बिल्कुल इसी प्रकार जिस तरह शेर को हिरण का शिकार करने के लिए हिरण के पास जाकर उसे मारना पड़ता है। हिरण स्वयं उसके मुंह में नहीं आ जाता।
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