uttar awogik samaj se aap kya samajhte hain. charcha kijiye
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बहुत सरल शब्दों में कहें तो उत्तर औद्योगिक समाज ऐसा समाज होता है जहां के सकल अर्थतंत्र में औद्योगिक गतिविधियों के मुकाबले सेवा क्षेत्र में अधिक लाभ होने लगे । इस पद को जन्म देने का श्रेय अलैं तूरें को जाता है । इस परिघटना को समझने के लिए सूचना समाज, ज्ञान अर्थतंत्र और नेटवर्क समाज जैसे पदों का भी प्रयोग किया जाता है । इसे समाज में उत्पादक गतिविधियों के मुकाबले सेवाओं के प्रावधान की ओर अर्थतंत्र के रूपांतरण से भी पहचाना जाता है । साफ है कि ज्ञान भी जब पूंजी का मूल्य महत्व प्राप्त करने लगे तो मूल्य का स्रोत शारीरिक श्रम से अधिक मानसिक श्रम समझा जाने लगता है । स्वाभाविक है कि यदि किसी समाज में उत्पादन की प्रमुखता नहीं होगी तो उस समाज में उपभोक्ताओं का ही बोलबाला होगा । इसलिए इसे उपभोक्तावाद के उभार के रूप में भी देखा जाना चाहिए । सवाल यह भी है कि उपभोग करने के लिए उत्पादन होना तो होगा ही, भले यह उत्पादन उस देश में न हो जहां मजदूरी ज्यादा देनी हो और उद्योगों को वहां स्थानांतरित कर दिया जाए जहां सस्ता श्रम और संसाधन मुफ़्त हासिल हों । इसी के चलते इस परिघटना को साम्राज्यवाद की ही निरंतरता मानकर गरीब मुल्कों के नवउपनिवेशीकरण की जटिल प्रक्रिया से भी जोड़कर देखा जाना चाहिए ।
तूरें के बाद इस दिशा में सबसे महत्वपूर्ण अध्ययन के रूप में डैनिएल बेल की किताब ‘द कमिंग आफ़ पोस्ट-इंडस्ट्रियल सोसाइटी: ए वेन्चर इन सोशल फ़ोरकास्टिंग’ का नाम लिया जाता है । ढेर सारे लोग बेल को ही इस धारणा और पदावली का उद्भावक मानते हैं । इस किताब का प्रकाशन पहली बार 1973 में बेसिक बुक्स से हुआ था । उसके बाद 1976 और 1999 में भी उसके संस्करण निकले जिनके लिए लेखक ने अलग से प्रस्तावनाएं लिखीं । किताब के संस्करणों की इस निरंतरता से ही इस धारणा की लोकप्रियता और इस धारणा को स्थापित करने में उल्लिखित किताब का महत्व समझा जा सकता है । साठ के विद्रोही दशक के बाद का सत्तर का दशक पश्चिमी देशों, खासकर अमेरिका में कुछेक बुनियादी बदलावों का दशक माना जाता है । खास बात यह है कि साठ के दशक से बदलाव की जो ताकतें पैदा हुईं उन पर भी सत्तर के बदलावों का गहरा असर पड़ा और उन्होंने नए रूप धारण किए । इस अर्थ में उत्तर औद्योगिक समाज कोई इकहरी परिघटना नहीं है बल्कि वह एकाधिक आर्थिक,सामाजिक और सांस्कृतिक बदलावों का समुच्चय है । हमेशा की तरह ही बदलाव के शुरू के दिनों में उसकी नवीनता का पता नहीं चला लेकिन हाल के दिनों में आकर उस समय शुरू हुए बदलावों का अनुभव अत्यंत मारक और आत्मघाती हो चला है । इस संक्षिप्त आलेख में उन सभी बदलावों का विवेचन संभव नहीं है इसलिए उनमें से कुछेक की ही चर्चा की जाएगी । वैसे भी सामाजिक बदलाव बेहद जटिल प्रक्रिया होती है जिसके सभी रेशों को अलगाना कई बार संभव नहीं होता ।
उत्तर औद्योगिक समाज पर विचार करने वाली किताबों में मासाचुसेट्स इंस्टीच्यूट आफ़ टेक्नोलाजी प्रेस से प्रकाशित डैनिएल कोहेन की फ़्रांसिसी में प्रकाशित किताब का अंग्रेजी अनुवाद ‘थ्री लेक्चर्स आन पोस्ट-इंडस्ट्रियल सोसाइटी’ 2009 में छपा । किताब में लेखक ने बताया कि मार्क्स के मुताबिक इतिहास कुछेक चरणों से होकर गुजरता है और पूंजीवाद भी एक चरण है । पूंजीवाद का भी इतिहास है । बीसवीं सदी का पूंजीवाद उन्नीसवीं सदी के पूंजीवाद से अलग किस्म का था और आज का पूंजीवाद बीसवीं सदी के पूंजीवाद से अलग किस्म का है । बीसवीं सदी के पूंजीवाद के केंद्र में औद्योगिक कारखाना था । इसके इर्द गिर्द काम करने वालों के बीच आंगिक जुड़ाव होता था । इंजीनियरों का काम अकुशल मजदूरों को दीक्षित करना होता था । प्रबंधक लोग अन्य सभी लोगों की तरह ही वेतनभोगी हुआ करते थे और उनका काम आर्थिक उलटफेर से संस्थान की रक्षा करना होता था । इसके लिए सभी कारखाने सुरक्षा के उपाय करते थे ताकि कामगारों को काम मिलना बंद न हो । सामंती समाज की तरह ही बीसवीं सदी का औद्योगिक समाज उत्पादन के साथ ही रक्षा की व्यवस्था भी निर्मित करता था । इक्कीसवीं सदी का पूंजीवाद व्यवस्थित रूप से औद्योगिक समाज को ध्वस्त करने में मुब्तिला है । आपस में जुड़ी हुई औद्योगिक इकाइयों को एक दूसरे से अलगाया जा रहा है । जिन कामों को गैर जरूरी माना जा रहा है उन्हें ठेके पर दिया जा रहा है । इंजीनियरों को प्रयोगशालाओं में ऐसे काम दिए जा रहे हैं जिनके चलते मजदूरों से उनका सम्पर्क नहीं रह जाता है । इसके चलते सभी कामगार और परोक्ष रूप से समूचा समाज सुरक्षाविहीन हो गया है । उत्तर औद्योगिक समाज क्या है इसके लिए यह जानना होगा कि वह क्या नहीं है । अर्थ कि औद्योगिक गतिविधियों की अनुपस्थिति से उत्तर औद्योगिकता परिभाषित होती है । रोजगार भी उद्योग के मुकाबले सेवा क्षेत्र में अधिक मिल रहा है इसलिए सकारात्मक तरीके से कहें तो यह सेवा समाज कहा जाएगा । ऐसे ही एक सदी पहले कृषि के मुकाबले उद्योग की ओर रूपांतरण हुआ था । इस बदलाव के बावजूद वस्तुओं की मांग में कमी नहीं आई है । इससे ही सवाल पैदा होता है कि ये वस्तुएं आती कहां से हैं । विकसित देशों से निर्माण का काम अधिकाधिक विकासशील देशों की ओर भेजा जा रहा है । अर्थात उत्तर औद्योगिक समाज एक तरह के नव साम्राज्यवादी संबंध पर भी टिका हुआ है । विकसित देशों के लोगों की जीवन पद्धति को बनाए रखने के लिए लगातार विकासशील देशों के सस्ते श्रम और प्राकृतिक संसाधनों की लूट होती रहती है ।
तूरें के बाद इस दिशा में सबसे महत्वपूर्ण अध्ययन के रूप में डैनिएल बेल की किताब ‘द कमिंग आफ़ पोस्ट-इंडस्ट्रियल सोसाइटी: ए वेन्चर इन सोशल फ़ोरकास्टिंग’ का नाम लिया जाता है । ढेर सारे लोग बेल को ही इस धारणा और पदावली का उद्भावक मानते हैं । इस किताब का प्रकाशन पहली बार 1973 में बेसिक बुक्स से हुआ था । उसके बाद 1976 और 1999 में भी उसके संस्करण निकले जिनके लिए लेखक ने अलग से प्रस्तावनाएं लिखीं । किताब के संस्करणों की इस निरंतरता से ही इस धारणा की लोकप्रियता और इस धारणा को स्थापित करने में उल्लिखित किताब का महत्व समझा जा सकता है । साठ के विद्रोही दशक के बाद का सत्तर का दशक पश्चिमी देशों, खासकर अमेरिका में कुछेक बुनियादी बदलावों का दशक माना जाता है । खास बात यह है कि साठ के दशक से बदलाव की जो ताकतें पैदा हुईं उन पर भी सत्तर के बदलावों का गहरा असर पड़ा और उन्होंने नए रूप धारण किए । इस अर्थ में उत्तर औद्योगिक समाज कोई इकहरी परिघटना नहीं है बल्कि वह एकाधिक आर्थिक,सामाजिक और सांस्कृतिक बदलावों का समुच्चय है । हमेशा की तरह ही बदलाव के शुरू के दिनों में उसकी नवीनता का पता नहीं चला लेकिन हाल के दिनों में आकर उस समय शुरू हुए बदलावों का अनुभव अत्यंत मारक और आत्मघाती हो चला है । इस संक्षिप्त आलेख में उन सभी बदलावों का विवेचन संभव नहीं है इसलिए उनमें से कुछेक की ही चर्चा की जाएगी । वैसे भी सामाजिक बदलाव बेहद जटिल प्रक्रिया होती है जिसके सभी रेशों को अलगाना कई बार संभव नहीं होता ।
उत्तर औद्योगिक समाज पर विचार करने वाली किताबों में मासाचुसेट्स इंस्टीच्यूट आफ़ टेक्नोलाजी प्रेस से प्रकाशित डैनिएल कोहेन की फ़्रांसिसी में प्रकाशित किताब का अंग्रेजी अनुवाद ‘थ्री लेक्चर्स आन पोस्ट-इंडस्ट्रियल सोसाइटी’ 2009 में छपा । किताब में लेखक ने बताया कि मार्क्स के मुताबिक इतिहास कुछेक चरणों से होकर गुजरता है और पूंजीवाद भी एक चरण है । पूंजीवाद का भी इतिहास है । बीसवीं सदी का पूंजीवाद उन्नीसवीं सदी के पूंजीवाद से अलग किस्म का था और आज का पूंजीवाद बीसवीं सदी के पूंजीवाद से अलग किस्म का है । बीसवीं सदी के पूंजीवाद के केंद्र में औद्योगिक कारखाना था । इसके इर्द गिर्द काम करने वालों के बीच आंगिक जुड़ाव होता था । इंजीनियरों का काम अकुशल मजदूरों को दीक्षित करना होता था । प्रबंधक लोग अन्य सभी लोगों की तरह ही वेतनभोगी हुआ करते थे और उनका काम आर्थिक उलटफेर से संस्थान की रक्षा करना होता था । इसके लिए सभी कारखाने सुरक्षा के उपाय करते थे ताकि कामगारों को काम मिलना बंद न हो । सामंती समाज की तरह ही बीसवीं सदी का औद्योगिक समाज उत्पादन के साथ ही रक्षा की व्यवस्था भी निर्मित करता था । इक्कीसवीं सदी का पूंजीवाद व्यवस्थित रूप से औद्योगिक समाज को ध्वस्त करने में मुब्तिला है । आपस में जुड़ी हुई औद्योगिक इकाइयों को एक दूसरे से अलगाया जा रहा है । जिन कामों को गैर जरूरी माना जा रहा है उन्हें ठेके पर दिया जा रहा है । इंजीनियरों को प्रयोगशालाओं में ऐसे काम दिए जा रहे हैं जिनके चलते मजदूरों से उनका सम्पर्क नहीं रह जाता है । इसके चलते सभी कामगार और परोक्ष रूप से समूचा समाज सुरक्षाविहीन हो गया है । उत्तर औद्योगिक समाज क्या है इसके लिए यह जानना होगा कि वह क्या नहीं है । अर्थ कि औद्योगिक गतिविधियों की अनुपस्थिति से उत्तर औद्योगिकता परिभाषित होती है । रोजगार भी उद्योग के मुकाबले सेवा क्षेत्र में अधिक मिल रहा है इसलिए सकारात्मक तरीके से कहें तो यह सेवा समाज कहा जाएगा । ऐसे ही एक सदी पहले कृषि के मुकाबले उद्योग की ओर रूपांतरण हुआ था । इस बदलाव के बावजूद वस्तुओं की मांग में कमी नहीं आई है । इससे ही सवाल पैदा होता है कि ये वस्तुएं आती कहां से हैं । विकसित देशों से निर्माण का काम अधिकाधिक विकासशील देशों की ओर भेजा जा रहा है । अर्थात उत्तर औद्योगिक समाज एक तरह के नव साम्राज्यवादी संबंध पर भी टिका हुआ है । विकसित देशों के लोगों की जीवन पद्धति को बनाए रखने के लिए लगातार विकासशील देशों के सस्ते श्रम और प्राकृतिक संसाधनों की लूट होती रहती है ।
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